Wednesday, May 13, 2015

तोमर की...पार्टी यूं ही चालैगी

सारा मीडिया परेशान है कि कानून मंत्री तोमर आखिर हटते क्यों नहीं या हटाये क्यों नहीं जा रहे। ज्यादातर पत्रकार इस बारे में आश्वस्त हैं कि जो डिग्री जितेन्द्र तोमर के पास हैं वो फर्ज़ी हैं। सार्वजनिक तौर पर मौजूद दस्तावेज़ भी यही इशारा करते हैं। लेकिन फिर भी तोमर के चेहरे पर शिकन तक नहीं है। मंत्री जी को कभी फोन कर लीजिए या मिल लीजिए, ऐसे हंसते मुस्कुराते नज़र आएंगे कि जैसे कुछ हुआ ही नहीं। कई साल हो गए पत्रकारिता करते हुए इसलिए आसानी से समझ सकता हूं उन सब दोस्तों का दर्द जिन्होंने तोमर की फर्ज़ी डिग्री से जुड़ी स्टोरीज़ की हैं। वाकई परेशानी होती है जब आपको लगे की तमाम कागज़ात आपकी स्टोरी को सही ठहरा रहे हैं फिर भी वो व्यक्ति जिसके खिलाफ़ आपने स्टोरी की है, अपनी कुर्सी पर विराजमान है, बेफिक्र है.....ऐसे में पत्रकार और ज़ोर लगाते हैं ताकि कुर्सी को हिलाया जा सके। लेकिन अपने उन तमाम साथियों को निराश करते हुए बस इतना ही बताना है कि तोमर की....पार्टी यूं ही चालैगी

दरअसल इस कहानी में भी पर्दे के पीछे कुछ और है और सामने कुछ और.......सामने विपक्षी दलों के आरोप नज़र आते हैं, तमाम दस्तावेज़ नज़र आते हैं, बार काउंसिल की जांच नज़र आती है, यूनिवर्सिटी की चिट्ठी नज़र आती है और डिफेंसिव मोड में सरकार नज़र आती है। पहली नज़र में लगता है कि सरकार के पास इस मामले में कोई जवाब ही नहीं है और बिना किसी कारण के सरकार इस ज़िद पर अड़ी है कि अपने दाग़ी मंत्री को हटाएंगे नहीं। दिल्ली में जिस बीजेपी की 3 सीट लाते-लाते सांसें फूल गई थी वो इस मुद्दे पर हर रोज़ प्रदर्शन कर रही है। आइए पूरे मामले को समझने के लिए पहले आरोप और पेश किए जा रहे सबूतों को समझ लें।

जितेन्द्र तोमर पर आरोपों की इस पूरी कहानी पर लोगों को आसानी से यकीन इसलिए हो जाता है क्योंकि जितेन्द्र तोमर की पढाई कई अलग अलग जगहों पर हुई, कई बार बीच में पढाई छोड़ी और फिर शुरु कर दी। स्कूल दिल्ली, ग्रेजुएशन उत्तरप्रदेश और कानून की पढाई बिहार से की। ज्यादातर लोग अपनी पढाई के दौरान लोग इतनी जगह नहीं घूमते इसलिए उन्हें आसानी से इसमें कुछ गड़बड़ नज़र आ गया। रही सही कसर पढाई के बीच अलग अलग वक्त पर लिये गये 5 साल के अंतराल ने कर दी। अब प्लॉट तैयार है बस कहानी बेचनी बाकी थी। बीजेपी के कुछ नेताओं ने इस कहानी के तार जोड़ने के लिए तमाम काग़ज़ात इकट्ठे करने शुरु किए और यूपी की यूनिवर्सिटी से लिखित में प्राप्त कर लिया गया कि डिग्री फर्ज़ी है। फिर भागलपुर से भी यूनिवर्सिटी से लिख कर आ गया कि कुछ गड़बड है और हंगामा मच गया कि फ़र्ज़ी डिग्री लिया हुआ एक आदमी कानून मंत्री बना बैठा है।

पर्दे के पीछे की कहानी.....

पहले पहल जितेन्द्र तोमर ने इस मामले को हल्के में लिया और नकार दिया। लेकिन जैसे जैसे कागज़ात सामने आने लगे तो एक बार के लिए तो तोमर खुद भी सकपका गए थे। लेकिन जब कोशिश शुरु की गई तो कई ऐसी कडियां जुड गयी कि तोमर के साथ साथ केजरीवाल भी संतुष्ट हो गए कि कानूनी लड़ाई में वो जीत जाएंगे। पढाई कहां की या नहीं की ये तो फिलहाल सिर्फ तोमर ही जानते हैं लेकिन कानूनी रुप से जो तस्वीर बाहर नज़र आ रही है पर्दे के पीछे बिल्कुल वैसी नहीं है। देखिए कैसे.....

आरोप है कि तोमर की ग्रेजुएशन की डिग्री फर्जी है और यूपी की यूनिवर्सिटी ने ये लिख कर दे भी दिया है। लेकिन इसकी काट के तौर पर तोमर के पास कॉलेज का लिखित जवाब और रिकार्ड मौजूद हैं जिसमें कहा गया है कि तोमर वहीं पढ़े हैं और डिग्री हासिल की है। अब इसके आगे अगर मामला जाता है तो ये लड़ाई कोर्ट में कॉलेज और यूनिवर्सिटी के बीच की है, तोमर कम से कम इस आरोप से साफ निकल आएंगे।

दूसरा आरोप है कि भागलपुर से ली गई तोमर की कानून की डिग्री फर्जी है। इस आरोप को पुख्ता करती है भागलपुर यूनिवर्सिटी की जांच रिपोर्ट, जिसमें लिखा है कि तोमर के रिकार्ड्स में गड़बड है और दिखाए गए सर्टिफिकेट फर्जी नज़र आ रहे हैं। इसके जवाब में तोमर ने अपना बेहद पुख्ता बचाव तैयार कर लिया है। तोमर ने फिर अपने उस कॉलेज से सारे रिकार्ड्स मांगे और जो कुछ मिला उसे किसी भी कोर्ट में चैलेंज करना बेहद मुश्किल होगा। तोमर के पास लॉ की पढाई के तीनों साल के मूल रजिस्ट्रेशन रजिस्टर, यूनिवर्सिटी रोल और एक्ज़ाम रिकार्ड की प्रतियां मौजूद हैं जो उसे लॉ कालेज के पुराने रिकार्ड से आरटीआई के ज़रिए मिली हैं।

हैरानी की बात तो ये है कि जो डिग्रियां तोमर की बता कर आरोप लगाए गए हैं दरअसल वो इन डिग्रियों से मेल नहीं खाती जो तोमर के पास मौजूद हैं। आरोप लगाने के लिए इस्तेमाल की गयी डिग्रियों पर रोल नंबर बदले हुए हैं जोकि तोमर की मूल डिग्रियां देखने से साफ़ समझ आता है।

दरअसल तोमर और सरकार इस पूरे मामले पर दोहरा खेल खेल रहे हैं और जानबूझ कर ये सारे दस्तावेज़ मीडिया के सामने नहीं रख रहे। मीडिया और विपक्ष इन आरोपों में इतना उलझा हुआ है कि सरकार को खुलकर अपना काम करने का मौका मिल रहा है। और जब कोर्ट में ये तमाम सबूत बिना मीडिया में आए सीधे पेश किए जाएंगे तो ज्यादा असरदार होंगे। मीडिया और विपक्ष झूठा नज़र आएगा और सरकार अपने खिलाफ मीडिया में चल रही तथाकथित साजिश का रोना फिर से रो सकेगी।

पर्दा गिरता है.....

तोमर की मुश्किलें बढ़ती नज़र आ रही हैं। बार काउंसिल ने पुलिस को जांच के लिए चिट्ठी लिखी है। तोमर इस पूरे मामले पर खामोश हैं .....केजरीवाल अपने दागी मंत्री पर चुप्पी साधे हुए हैं। लगता है मीडिया और विपक्ष की तमाम कोशिशों के बावजूद.....तोमर की...पार्टी यूं ही चालैगी


Wednesday, April 15, 2015

स्वराज संवाद का अगला पडाव, बीएमसी चुनाव.....नयी पार्टी की पूरी कहानी

गुडगांव की शुभ वाटिका में करीब एक हज़ार कार्यकर्ताओं की मौजूदगी और नेताओं के तेवर ने ये साफ कर दिया कि अब पार्टी का नाम और चिन्ह तय होना ही बाकी है। इन औपचारिकताओं को भी समय के साथ पूरा कर लिया जाएगा। लेकिन पर्दे के पीछे जाने से पहले सीन समझना बेहद ज़रुरी है।

करीब एक हज़ार कार्यकर्ता मौजूद हैं जो देश के अलग अलग हिस्सों से गुड़गांव पहुंचे हैं....बडी बात है। भीड होती तो शक्ति प्रदर्शन का नाम दिया जाता लेकिन इतनी संख्या में अलग अलग जगह से आये कार्यकर्ताओं की मौजूदगी साफ इशारा कर रही थी कि कार्यक्रम को एक योजना के तहत खास तरीके से आयोजित किया गया है। अलग अलग राज्यों से आए कार्यकर्ताओं से बात करने के लिए 60 टीम कॉर्डिनेटर भी बनाए गए। पूरे आयोजन को सुचारु तरीके से चलाने के लिए आईटी टीम, ऑर्गेनाइजिंग टीम बनाई गई थी। एनआरआई सदस्यों के विडियो मैसेज भी थे। कार्यक्रम में एंट्री के करीब डोनेशन बॉक्स भी रखे गये और पंडाल में चंदा इकट्ठा करने के लिए चादर भी घुमाई गई। यानि पूरी तस्वीर को कतई उस सबसे अलग नहीं दिखने दिया गया जो ये तमाम कार्यकर्ता और मीडिया, अन्ना आंदोलन से आम आदमी पार्टी तक के सफर में देखते रहे हैं।

मंच से लगातार वक्ता ये बताते रहे कि कैसे स्वराज के असली सिद्धांत वो नहीं हैं जो आम आदमी पार्टी में चल रहे हैं बल्कि वो हैं जो स्वराज संवाद के पूरे कार्यक्रम में दिखाई दे रहे हैं। योगेन्द्र यादव हमेशा की तरह फिर से मंच छोड कर कार्यकर्ताओं के बीच बैठे रहे, ये यकीन दिलाने के लिए कि वो बदले नहीं हैं...बस वक्त बदल गया है।

इसी बीच प्रोफेसर आनंद कुमार मीडिया से बात करते हुए बार बार ये कह रहे हैं कि नयी पार्टी रोज़ रोज़ नहीं बनती....हम आम आदमी पार्टी में ही रहेंगे। ये आम आदमी पार्टी के कार्यकर्ताओं का ही स्वराज संवाद कार्यक्रम है।

मंच से पहले प्रशांत भूषण बोले तो कुछ ऐसा बोल दिया जो वहां मौजूद कई कार्यकर्ताओं को भी अटपटा सा लगा। प्रशांत भूषण ने कहा कि हमारे पास एक विकल्प ये है कि हम कोर्ट में जाकर आम आदमी पार्टी का चिन्ह छीन लें....नाम छीन लें....क्योंकि ये हमारी पार्टी है और कुछ लोगों ने इस पर कब्ज़ा कर लिया है। वहां मौजूद किसी भी कार्यकर्ता को शायद ही प्रशांत जी के इस दावे पर शक हो, क्योंकि हर कोई प्रशांत जी की कानूनी समझ और पकड़ से बखूबी वाकिफ़ है। लेकिन फिर इसके बाद जब प्रशांत जी ने कहा कि हम कोर्ट नहीं जाएंगे तो पहली बार पुख्ता तौर पर अहसास हुआ कि नयी पार्टी की नींव रख दी गई है।

फिर योगेन्द्र यादव मंच से बोले और कहा कि दिल्ली मैदान में बिछे एक छोटे से रुमाल की तरह है......हमारे काम करने के लिए बाकी का पूरा मैदान खाली पड़ा है। इसलिए केजरीवाल सरकार से टकराएं नहीं...उन्हें दिल्ली में अपना काम करने दें।

अंत में वोटिंग हुई जिसमें 25 फीसदी ने तुरंत पार्टी बनाने को कहा तो 70 फीसदी ने कहा कि पार्टी के भीतर ही लड़ते हैं और कुछ समय बाद दोबारा बैठक कर निर्णय लेंगे। और फिर पास हुआ एक प्रस्ताव जिसमें 49 लोगों की कमेटी को स्वराज आंदोलन के बैनर तले आंदोलन चलाने, संगठन बनाने और निर्णय लेने का अधिकार दे दिया गया।

पर्दे के पीछे की कहानी

पार्टी बनाने का निर्णय लिया जा चुका है लेकिन सही समय और माहौल के लिए इंतज़ार करना पड़ रहा है। विवाद की शुरुआत में प्रशांत भूषण कोर्ट जाना चाहते थे क्योंकि आम आदमी पार्टी ने बागियों के खिलाफ जो भी फैसले लिए हैं उनमें कानूनी तौर पर कई बड़ी खामियां हैं। लेकिन एक बार जब ये फैसला लिया गया कि नयी पार्टी बनाई जाए को काफी मशक्कत करके प्रशांत जी को समझाना पड़ा कि कोर्ट की राह पर जाने से पार्टी पर कब्जा हासिल करने की तस्वीर सामने आयेगी जोकि व्यक्तिगत लड़ाई जैसा लगेगा। इस सबसे नयी पार्टी बनाने के लिए न तो कार्यकर्ता मिल पाएंगे और न ही सही राजनैतिक माहौल मिल पाएगा। ये और बात है कि सिर्फ बागी नेताओं ने ही नहीं बल्कि आम आदमी पार्टी में भी बहुत से लोगों ने प्रशांत भूषण के कोर्ट नहीं जाने के फैसले से राहत की सांस ली है।

नयी पार्टी बनाने के लिए नेता चाहिये, कार्यकर्ता चाहिये, पैसा चाहिये, संसाधन चाहिये, संगठन चाहिये और ऊर्जा चाहिये। योगेन्द्र यादव इन सारी बातों से बखूबी वाकिफ हैं। नये संगठन के लिए कार्यकर्ता वो लोग बन रहे हैं जो अपनी अपनी वजहों से आम आदमी पार्टी को आदर्शों से भटका हुआ मान रहे हैं। शुरुआत में पैसे की समस्या सुलझाने में शांति भूषण जी मदद कर देंगे जैसे आम आदमी पार्टी बनने के वक्त किया था। संसाधन जुटाए जा सकते हैं यही दिखाने के लिए स्वराज संवाद का आयोजन किया गया था। संगठन 49 लोगों की कमेटी (जो बाद में नयी पार्टी की कार्यकारिणी में तब्दील हो जाएगी) के ज़रिए तय करने की दिशा में कदम बढा लिया गया।

इन सारी कडियों को जोड़ने के लिए चाहिये एक नेता। प्रशांत भूषण अपने कानूनी मसलों में इतने उलझे रहते हैं कि पार्टी के शीर्ष नेता तो हो सकते हैं लेकिन पूर्णकालिक नेता नहीं। शायद इसलिए योगेन्द्र यादव ने मोर्चा संभाला और खुद को इस स्थान के लिए प्रस्तुत कर दिया। मंच से ये एलान किया कि मैंने अपने परिवार से बात कर ली है। आज के बाद जितना भी मेरा जीवन बचा है उसके हर दिन के 24 घंटे वैकल्पिक राजनीति तैयार करने में लगाऊंगा। इतना ही नहीं किसी कार्यकर्ता के मन में कोई शक न रहे इसलिए इशारा भी कर दिया कि आज से ही हम राजनीति के एक नये रास्ते पर निकल चुके हैं। किसी पार्टी को खड़ा करने के लिए और कार्यकर्ताओं में अपनी स्वीकार्यता स्थापित करने के लिए बेहद ज़रुरी है कि कोई नेता अपना निजि जीवन और परिवार त्याग कर लोगों के लिए काम करने का भरोसा जगाए। यही योगेन्द्र यादव ने भी करने की कोशिश की।

आम आदमी पार्टी की मैसूर टीम से स्वराज संवाद में पहुंचे विनोद एमएस ने मंच से कहा कि अगर समझौता नहीं हो सकता है तो फिर केजरीवाल दिल्ली चलाएं और योगेन्द्र यादव जी को संयोजक बना दिया जाए। इस हुंकार पर तालियां भी बजी और नारे भी लगे। इसे कोई भी आसानी से आवेश में कही गयी बात समझ सकता है अगर उसे ये न पता हो कि स्वराज संवाद से एक दिन पहले प्रशांत जी के घर जिन 10-15 लोगों की बैठक हुई उनमें ये विनोद जी भी मौजूद थे। ऐसे में इन्हें ये समझा देना मुश्किल बात तो नहीं थी कि संयोजक पद पर विवाद नहीं है और इसका ज़िक्र ज़रुरी नहीं है। लेकिन ये ज़िक्र ज़रुरी था क्योंकि मौजूद कार्यकर्ताओं को योगेन्द्र यादव में नयी पार्टी के संयोजक और नेतृत्व की छवि अभी से दिखानी थी।

यानि पार्टी बनाने के सारे तत्व मौजूद हैं तो फिर पार्टी का एलान क्यों नहीं हुआ? इसकी वजह है आखिरी तत्व, जो बेहद ज़रुरी है......ऊर्जा। बहुत से कार्यकर्ता फिलहाल नाराज़ तो हैं लेकिन उनमें वो हौसला नहीं है कि दोबारा सड़क पर उतर कर नयी पार्टी को खड़ा कर सकें। योगेन्द्र यादव पिछले 2-3 सप्ताह में देश के अलग अलग हिस्सों में घूमे हैं, कार्यकर्ताओं से मिले हैं और उन्हें ये बखूबी पता है कि अगर इस वक्त पार्टी का एलान किया गया तो पार्टी दफ्तर में ही सिमट कर रह जाएगी। राजनैतिक उर्जा चुनाव करीब देखकर या मुद्दों पर संघर्ष के दौरान पैदा होती है। योगेन्द्र यादव को राजनीति की खूब समझ है। इसलिए पार्टी की घोषणा करने की बजाय उन्होंने इन दोनों रास्तों पर आगे बढने का फैसला किया।

स्वराज आंदोलन के ज़रिए अलग अलग मुद्दों पर देश भर में आंदोलन चलाकर राजनैतिक ज़मीन तलाशने की कोशिश की जाएगी। और जैसे ही किसी मुद्दे पर राजनैतिक ज़मीन तैयार होती दिखेगी, उसी ज़मीन पर अपनी नयी पार्टी का दफ्तर बना देंगे।

अगर ऐसा नहीं हो पाया तो विकल्प भी तैयार रखा गया है। बहुत से लोग ये सोचकर हैरान हैं कि मयंक गांधी जो इस पूरे विवाद पर इतने मुखर होकर बोले थे वो और उनकी पूरी टीम अचानक पार्टी के भीतर स्वराज कायम करने के इस संघर्ष से गायब कैसे हो गई। जी हां, सूत्रों से जो जानकारी मिल रही है उसके मुताबिक मुंबई टीम ही बैकअप प्लान है। कुछ वक्त बाद ही बीएमसी चुनाव हैं जिसे लेकर मयंक काफी सक्रीय और मुखर हैं। अगर आम आदमी पार्टी का केंद्रीय नेतृत्व बीएमसी चुनाव लड़ने से इनकार करता है को मुंबई टीम बग़ावत करके चुनाव लड़ने का फैसला भी कर सकती है और यही वो राजनैतिक उर्जा हो सकती है जिसपर नयी पार्टी का शिलान्यास कर दिया जाए।

पर्दा गिरता है।

योगेन्द्र यादव, प्रशांत भूषण, प्रोफेसर आनंद कुमार जैसे बागी नेताओं को स्वराज संवाद के चलते पार्टी से निकाल दिया गया है। ये सभी नेता स्वराज संवाद में कुछ भी पार्टी विरोधी नहीं होने का दावा कर रहे हैं। इनका कहना है कि इस मनमाने फैसले के खिलाफ वो कार्यकर्ताओं के बीच जाएंगे। हमारे बाकी साथी पार्टी के भीतर रहते हुए संघर्ष जारी रखेंगे।

49 सदस्यीय नवनिर्मित स्वराज कमेटी ने देश भर में स्वराज संवाद आयोजित करने का कार्यक्रम तय किया है। इसके तहत अगला स्वराज संवाद हरियाणा आयोजित किया जाएगा।


वैसे मुझे जानकारी मिली है कि नयी पार्टी के लिए कई नामों के सुझाव भी पहुंच चुके हैं। मसलन आम जनता पार्टी, आम आदमी पार्टी (यूनाइटेड), आपकी अपनी पार्टी इत्यादि इत्यादि.... 

Friday, March 20, 2015

आम आदमी पार्टी की महाभारत का सच (भाग-2)



राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में योगेन्द्र यादव और प्रशांत भूषण को पीएसी से निकालने के मुद्दे पर वोटिंग में जब 11-8 का आंकड़ा निकल कर आया तो एक बार के लिए सबको लगा कि पार्टी टूटने जा रही है। कुछ वक्त बाद लगने लगा कि पार्टी तो नहीं टूटेगी लेकिन योगेन्द्र और प्रशांत को बाहर का रास्ता ज़रुर दिखाया जाएगा। ये शायद इन दोनों के कद के लिहाज से सही नज़र नहीं आता और इसी वजह से कई कार्यकर्ताओं की सहानुभूति भी दोनों को मिली। पार्टी नेताओं को इस बात का अहसास हुआ तो बातचीत के रास्ते हल निकालने की कोशिशें होने लगी।

कुछ लोगों की मानें तो पिछले कुछ दिनों से दोनों पक्षों में चल रही बातचीत समझौते की दिशा में बढ रही है। लेकिन यहां एक बुनियादी सवाल है कि जो आरोप योगेन्द्र और प्रशांत भूषण पर लगाए गए हैं क्या उनके रहते समझौता मुमकिन है? ऐसा कैसे हो सकता है कि इन आरोपों के होते हुए भी इतने प्यार से सब कुछ सुलझता नज़र आ रहा है....या तो ये आरोप ग़लत थे या फिर जो कुछ दिख रहा है वो सही नहीं है। क्या लड़ाई वाकई आदर्शों की है?

इन सबके बीच अचानक खबर आती है कि प्रशांत भूषण और योगेन्द्र यादव ने पार्टी को एक चिट्ठी लिखी है जिसमें अपने सभी आदर्शवादी मुद्दों के मान लिए जाने पर उन्होंने राष्ट्रीय कार्यकारिणी की सदस्यता समेत सभी पद छोड़ने की वादा किया गया है। फिलहाल राष्टीय कार्यकारिणी के अलावा प्रशांत भूषण अनुशासनात्मक समिति में, और योगेन्द्र यादव मुख्य प्रवक्ता के पद पर हैं। पहले प्रशांत जी ने चिट्ठी (एक नोट) लिखने की बात मानी लेकिन दावा किया कि इसमें इस्तीफे की बात कहीं नहीं है। यानि ऐसी कोई चिट्ठी होने की बात की पहली तसदीक प्रशांत भूषण की तरफ से हुई। कुछ ही देर बाद प्रशांत भूषण ने अपने बयान में थोड़ा बदलाव किया और शाम होते होते तो योगेन्द्र यादव ने सभी मीडिया चैनलों को झूठा करार दे दिया ये कहते हुए कि ऐसी कोई चिट्ठी लिखी ही नहीं गई। राजनीति में बेधड़क झूठ बोल देने की रिवायत ऐसे ही मौकों के लिए है जब आपकी राजनीति की बुनियाद खिसक रही हो। खैर योगेन्द्र जी के इनकार करने से सच्चाई तो बदल नहीं जाएगी, हां प्रशांत जी को ये पछतावा ज़रुर रहा होगा कि जब पार्टी में सभी चिट्ठी के बारे में खामोश थे तो उन्होंने इसके होने की तसदीक क्यों की?


अंदर की कहानी


योगेन्द्र यादव और प्रशांत भूषण की पार्टी से विदाई तय थी लेकिन पार्टी के सीनियर नेताओं के दखल के बाद बीच का रास्ता निकालने पर सहमति बनी। बीच का रास्ता दोनों की ताकत को स्वीकारना नहीं, बल्कि सम्मान के साथ दोनों को पार्टी में फैसला लेने के सिस्टम से अलग करने के लिए तलाशना था। क्योंकि पार्टी विरोधी काम करने का आरोप हो और पार्टी में शीर्ष निर्णय लेने की समिति में भी आप बने रहें, ये पार्टी के शीर्ष नेताओं के गले नहीं उतर रहा था। मैनें अपने लेख आम आदमी पार्टी की महाभारत का सच में भी लिखा था कि लड़ाई इन आदर्शवादीमुद्दों की नहीं है क्योंकि इन्हें मान लेना किसी पार्टी और खासकर आम आदमी पार्टी के लिए कोई बड़ा काम नहीं है। पार्टी में आखिरकार समझौता भी उसी दिशा में हुआ है। इन सभी मुद्दों को मान लिया जाएगा।

अब इसे योगेन्द्र यादव और प्रशांत भूषण का अति आत्मविश्वास कहिये या एक राजनैतिक चूक कि वो लगातार ये तस्वीर पेश करने में लगे रहे कि मानो ये मुद्दे ही उनके लिए सबकुछ हैं और अगर ये मुद्दे पूरे हो जाएं तो उन्हें किसी पद का कोई लालच नहीं है। (ये राजनैतिक चूक न होकर उनकी ईमानदार सोच भी हो सकती है, मैं इस बात से कतई इनकार नहीं कर रहा हूं)। इन दोनों नेताओं की ज़िद के आगे आखिरकार पार्टी को झुकना पड़ा और सहमति बनी कि ये सारे मुद्दे मान लिए जाएंगे लेकिन फिर क्या? क्या उससे योगेन्द्र यादव और प्रशांत भूषण पर पार्टी के खिलाफ काम करने के आरोप ख़त्म हो जाएंगे? और यदि नहीं तो फिर इन आरोपों के लिए सज़ा के तौर पर इन दोनों को पार्टी से तो निकलना ही होगा।

ऐसी स्थिति को सामरिक रणनीति की क्लास में बेहतरीन तरीके से समझाया जाता है। अगर लड़ाई में विरोधी समर्पण करने को राज़ी हो जाएं तो दो स्थितियां बन सकती हैं।

1)   विरोधी को कैद कर उसपर अपराध संबंधी मुकद्दमा चलाया जाए और पूरी दुनिया के सामने उसके अपराधों को साबित कर उसे नेस्तोनाबूद किया जाए। (लेकिन ऐसी स्थिति तो केवल भारत पाक युद्ध में ही फिट बैठती है।)

            2)  विरोधी यदि ग़लती मानकर समर्पण करने को तैयार हो जाए, तो उसे कई बार निकलने के लिए सुरक्षित रास्ता दे दिया जाता है ताकि खुद की जीत तो हो, लेकिन सामने वाले के अपराध का दुनिया में ढिंढोरा न पिटे।

पिछले कुछ दिनों में लगातार चली मुलाकातों में इसी तरह की एक सहमति बनी और इसी सहमति के आधार पर प्रशांत भूषण और योगेन्द्र यादव ने लिखित में दिया कि यदि उनके उठाए सभी मुद्दे मान लिए जाते हैं तो वो पार्टी के सभी पदों से इस्तीफा दे देंगे। बदले में उन्हें पार्टी से नहीं निकाला जाएगा और सम्मान सहित पार्टी में काम करने का दूसरा मौका दिया जाएगा।

इस चिट्ठी के लिखे जाने की पुष्टी कर प्रशांत जी शायद इसी सम्मान को सुनिश्चित कर लेना चाहते थे लेकिन बाद में उन्हें लगा कि पासा उल्टा पड़ रहा है तो चिट्ठी का अस्तित्व अचानक खत्म कर दिया गया। लेकिन इस दुनिया की यही तो खास बात है कि यहां जो एक बार अस्तित्व में आ जाए वो सच बन जाता है और सच यूं ही खत्म नहीं होता......अपने होने के निशान छोड़ देता है। इस चिट्ठी के साथ भी यही हुआ है.....इंतज़ार कीजिए, शायद किसी दिन बाहर आ जाए....

पर्दा गिरता है.....

28 मार्च को होने जा रही राष्ट्रीय परिषद में दोनों नेता ससम्मान पार्टी में बने रहेंगे। योगेन्द्र जी इसी तरह मुस्कुराते रहेंगे। प्रशांत जी इसी तरह पार्टी की कानूनी लडाई का चेहरा बने रहेंगे। और हां, आदर्श मांगें भी मान ली जाएंगी। सब खुश.......हैप्पी एंडिंग.....लेकिन बस इस एपिसोड़ की, क्योंकि कहानी अभी बाकी है।

Saturday, March 14, 2015

आम आदमी पार्टी की महाभारत का सच


कुछ लोग आम आदमी पार्टी के भीतर चल रही लडाई को व्यक्तित्वों का संघर्ष समझ रहे हैं, तो कुछ इसे राजनैतिक महत्वकांक्षा का टकराव कह रहे हैं। इसमें कोई दो राय नहीं कि जो कुछ दिखाई पड़ रहा है वो इसी तरफ इशारा करता है। लेकिन राजनीति की यही तो खास बात है कि यहां जो दिखता है वो होता नहीं और जो होता है वो दिखता नहीं। पर्दे के दूसरी तरफ इस टकराव की असली वजह छिपी है जहां शायद अभी तक किसी ने झांकने की कोशिश भी नहीं की है।

दरअसल कोई भी राजनैतिक महत्वकांक्षा या व्यक्तित्व संघर्ष कभी इस स्तर तक नहीं बढता.....एक वक्त के बाद कोई एक पक्ष दूसरे पर भारी पड़ जाता है और ऐसे संघर्ष शांत हो जाते हैं। क्योंकि अगर ऐसा न होता तो आडवाणी आज बीजेपी में नहीं होते। हर व्यक्ति को एक वक्त पर ये अंदाज़ा हो जाता है कि उसकी ताकत पार्टी के दूसरे नेता से ज्यादा है या कम। और उसी के आधार पर हमेशा राजनैतिक समझौते हो जाया करते हैं।

कुछ लोगों को लगता है कि ये संघर्ष मुद्दों को लेकर है पद को लेकर नहीं, जैसा प्रशांत भूषण और योगेन्द्र यादव भी लगातार दावा कर रहे हैं। लेकिन ऐसा भी नहीं लगता। अगर पद महत्वपूर्ण नहीं है तो फिर ऐसा क्यों हुआ कि खुद को पीएसी से बाहर निकालने के सवाल पर खुद प्रशांत और योगेन्द्र ने अपने ही पक्ष में वोट किया। अगर लडाई मुद्दों की ही है तो क्या अच्छा नहीं होता कि ये दोनों खुद को वोटिंग से बाहर रखते और बाकी सदस्यों को ये तय करने का अधिकार देते कि उन्हें पीएसी में रहना चाहिये या नहीं। लेकिन ऐसा नहीं हुआ क्योंकि जो कुछ चल रहा है उसमें पद का भी काफी महत्व है।

फिर ऐसा क्या है कि आम आदमी पार्टी में छिडा विवाद ख़त्म ही नहीं हो रहा। क्या योगेन्द्र यादव और प्रशांत भूषण को ये अंदाज़ा नहीं कि केजरीवाल पार्टी के भीतर और बाहर उनसे कहीं ज्यादा लोकप्रिय नेता हैं? और अगर उन्हें अंदाज़ा है तो फिर किस दम पर वो इस संघर्ष में आगे बढ़ते जा रहे हैं? आखिर क्यों केजरीवाल इस लडाई में अपनी छवि तक दांव पर लगाने को तैयार हैं?

आइये पर्दे के उस पार चलते हैं और पहले तमाम चरित्रों से मिलते हैं।

योगेन्द्र यादव – राजनीति में सिस्टम बदलने नहीं आये क्योंकि लम्बे वक्त तक खुद इस सिस्टम का हिस्सा रह चुके हैं। कुछ लोग इन्हें कांग्रेस दिग्गजों का राजनैतिक सलाहकार भी मानते रहे हैं। अपने दम पर पार्टी नहीं चला सकते ये तय है। लेकिन विचारों और व्यक्तित्व की अभिव्यक्ति में केजरीवाल को छोड दें, तो पार्टी में शायद ही कोई इनका मुकाबला कर पाए। पार्टी के जो नेता इन्हें दिन रात कोस रहे हैं वो अपने घर पर अपनी पत्नी से कुछ इस अंदाज़ में गालियां भी खा रहे हैं - योगेन्द्र जी तो इतने भले आदमी लगते हैं आप लोगों ने  ही कोई बदतमीजी की होगी वर्ना बात इतनी न बढती। योगेन्द्र यादव राजनैतिक व्यवहार और चालबाज़ियों में माहिर हैं। पार्टी के भीतर और कार्यकर्ताओं में योगेन्द्र यादव की खास पकड़ नहीं है इसलिए अपनी स्थिति मजबूत करने के लिए शुरु से ही प्रशांत भूषण को अपने साथ मिला लिया। अब हर बार कंधा प्रशांत भूषण का और चाल योगेन्द्र की होती है।

प्रशांत भूषण – भ्रष्ट सिस्टम में बदलाव के लिए शरु से लड़ते रहे हैं। भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई का एक बड़ा चेहरा हैं और पार्टी से अलग भी अपनी साख रखते हैं। अन्ना आंदोलन और आम आदमी पार्टी से पहले भी प्रशांत भूषण सिस्टम के खिलाफ कानूनी लड़ाई के लिए जाने जाते रहे हैं। कोई ख़ास राजनैतिक समझ नहीं है इसलिए योगेन्द्र यादव से खूब पट रही है। पार्टी में रहने या अलग होने से इन्हें व्यक्तिगत तौर पर कोई खास फर्क नहीं पड़ता। लेकिन पार्टी में ज्यादातर कार्यकर्ता इनके काम से प्रभावित हैं और मानते हैं कि इनके जाने से पार्टी को नुकसान होगा।

शांतिभूषण – आम आदमी पार्टी की इस पूरी महाभारत में धृतराष्ट्र की भूमिका में हैं। क्योंकि इनको बेटे का मोह दिखाकर जब भी इनके कान भरे गये। इन्होंने बिना पार्टी का अच्छा बुरा सोचे, खुलेआम विद्रोह का एलान कर दिया। (केवल उदाहरण देने के लिए शांतिभूषण को धृतराष्ट्र की भूमिका में कहा है....प्रशांत जी को दुर्योधन समझना या कहना बदतमीज़ी होगा।)

मयंक गांधी- महाराष्ट्र में पार्टी का चेहरा हैं लेकिन कोई लोकप्रिय नेता नहीं हैं। इस पूरे विवाद में हाल फिलहाल ही शामिल हुए हैं क्योंकि इन्हें लगने लगा है कि अगर योगेन्द्र यादव और प्रशांत भूषण पार्टी की रणनीति तय करने की भूमिका में नहीं रहे तो पार्टी अगले 5 साल और शायद उसके आगे भी महाराष्ट्र में चुनाव नहीं लडेगी। इससे इनके राजनैतिक भविष्य पर विराम लग रहा है।

अरविंद केजरीवाल – आम आदमी पार्टी का सबसे बड़ा और लोकप्रिय चेहरा। अपने दम पर यहां तक का रास्ता तय किया और अब भी महत्वपूर्ण फैसले अपने दिमाग से करने में यकीन करते हैं। जो जैसा है उसे उसी के तौर तरीके से जवाब देने की आदत है फिर चाहे उसके लिए कुछ देर पटरी से ही क्यों न उतरना पड़े। राजनैतिक समझ के मामले में इस वक्त पार्टी में इनका कोई सानी नहीं है। दिल्ली में रणनीति, कार्यानवयन और फैसले लेने का पूरा श्रेय केजरीवाल को जाता है। मन में बैठ चुका है कि योगेन्द्र यादव पीठ में छुरा घोंप रहे हैं। प्रशांत भूषण को पसंद करते हैं लेकिन उनके लिए योगेन्द्र और शांतिभूषण को बर्दाश्त करने को तैयार नहीं। लक्ष्य हासिल करने के लिए राजनैतिक पैतरों से भी परहेज़ नहीं लेकिन व्यक्तिगत तौर पर भ्रष्टाचार बर्दाश्त नहीं। पार्टी के भीतर की राजनीति में माहिर नहीं बन पाए हैं।


विवाद की असली तस्वीर –

योगेन्द्र यादव आम आदमी पार्टी में केजरीवाल के बराबर का कद चाहते हैं और ठीक उसी तरह जैसे दिल्ली की राजनीति में केजरीवाल को बेरोकटोक कोई भी फैसला लेने का अधिकार पार्टी ने दिया है....वैसा ही अधिकार हरियाणा की राजनीति में खुद के लिए चाहते हैं। लेकिन केजरीवाल के पुराने साथी और कट्टर समर्थक नवीन जयहिंद के हरियाणा की राजनीति में रहते ये कतई मुमकिन नहीं है। इसलिए योगेन्द्र यादव नवीन जयहिंद को पार्टी से बाहर निकलवाने की कोशिश भी कर चुके हैं लेकिन केजरीवाल इसके लिए कतई राज़ी नहीं है। इसे योगेन्द्र हरियाणा की राजनीति में केजरीवाल का हस्तक्षेप मानते हैं।

आम आदमी पार्टी बनने के शुरुआती दिनों में ही योगेन्द्र यादव ये समझ गये थे कि केजरीवाल प्रशांत भूषण को कुछ ज्यादा ही अहमियत देते हैं और प्रशांत ही एकमात्र ऐसे व्यक्ति हैं जो ठसक के साथ अपनी बात कह कर भी केजरीवाल को कभी नहीं खटकते। नवीन जयहिंद को निकालने के मुद्दे पर जब पंजाब में कार्यकारिणी की बैठक के दौरान वोटिंग करवाने पर योगेन्द्र अकेले पड़ गये, तो उन्हें ये समझ आ गया कि ऐसी स्थिति में पार्टी में लंबी पारी खेलना उनके लिए मुश्किल हो सकता है। योगेन्द्र यादव ने अपनी राजनैतिक चतुराई का इस्तेमाल कर धीरे धीरे प्रशांत भूषण को अपना बेहद करीबी बना लिया ताकि वक्त पड़ने पर उन्हें वीटो पावर की तरह इस्तेमाल किया जा सके। पिछले एक साल से ये दोनों दो शख्स हैं लेकिन पार्टी के भीतर हमेशा एक आवाज़ में बोलते हैं। यहां तक की राष्ट्रीय कार्यकारिणी को मेल या चिट्ठी भी एक ही जाती है जिसपर दोनों का नाम होता है।

योगेन्द्र यादव और प्रशांत भूषण की साझा कोशिशों के बावजूद पार्टी कार्यकारिणी में ये दोनों किसी मुद्दे पर कभी भी केजरीवाल को हराकर अपनी बात नहीं मनवा पाए। क्योंकि पार्टी में कोई भी केजरीवाल के खिलाफ जाने को तैयार नहीं है। पार्टी का पूरा सिस्टम (चूंकि वो वॉलंटियर्स से चलता है) भी केजरीवाल के ही इशारे पर काम करता है। इसलिए तय हुआ कि जिन आदर्शों की दुहाई देकर पार्टी बनी थी और तमाम समर्थक जुटे थे उन्हीं आदर्शों को आगे कर ये लड़ाई लड़ी जाए। लोकसभा चुनाव में ज़बरदस्त पराजय के बाद केजरीवाल ने फैसले लेने की पूरी ताकत अपने हाथों में ले ली। और योगेन्द्र यादव ने आदर्शों की लिस्ट पर सवाल जवाब कर केजरीवाल की इस ताकत को चुनौती देना शुरु कर दिया।

पासा सही पड़ा....वॉलंटियर्स उन सभी मद्दों के साथ हैं जो आदर्श हैं। मसलन खर्च का ब्यौरा, चंदे की जांच, आदर्श उम्मीदवारों का चयन इत्यादि इत्यादि। अब केजरीवाल कुछ भी कहें लेकिन कार्यकर्ताओं को तो पार्टी के भीतर आदर्श व्यवस्था ही चाहिये। यानि इस मुद्दे को सहारा बनाकर पहली बार पार्टी के भीतर केजरीवाल की स्थिति को चुनौती देना मुमकिन हो पाया है। अगर केजरीवाल इस मुद्दे के बहाने ही सही, योगेन्द्र यादव और प्रशांत भूषण के मामले में पार्टी में अल्पमत में आ जाएं तो पर्दे के पीछे के कई सवाल हल करने की ताकत योगेन्द्र कैंप के हाथ में आ जाएगी। समझौते के रुप में हरियाणा की दावेदारी, पार्टी में मजबूत स्थिति और दिल्ली के बाहर चुनाव लडने जैसे कई मुद्दों पर केजरीवाल की राय के खिलाफ भी अपनी बात मनवा पाना मुमकिन हो जाएगा। कैंप शब्द का इस्तेमाल इसलिए किया क्योंकि आदर्शों की इस लड़ाई के नाम पर योगेन्द्र आम आदमी पार्टी में अपने पक्ष में एक कैंप बनाने में कामयाब रहे हैं। इस कैंप को कार्यकर्ताओं का भी काफी समर्थन मिल रहा है। लेकिन यहां भी पर्दे के पीछे कैंप बनने का कारण आदर्श नहीं राजनीति ही है।

केजरीवाल आम आदमी पार्टी की आगे की राजनीति की दिशा और कार्यक्रम तय कर चुके हैं। केजरीवाल नेपोलियन नहीं बनना चाहते जिसे जीतने के लिए हर राज्य में जाना पड़े। केजरीवाल का प्लान है कि बिना दोबारा चुनावी दलदल में घुसे दिल्ली में ऐसा काम करके दिखाया जाए कि कहीं जाना न पड़े और देश भर में लोग दिल्ली का काम देखकर वोट दे दें। इसी प्लान को लेकर पर्दे के पीछे से पूरा कैंप खडा हो गया है। चुनाव नहीं लड़ेंगे तो महाराष्ट्र में मयंक गांधी की राजनीति का क्या होगा। हरियाणा में योगेन्द्र यादव का क्या भविष्य होगा। हिमाचल में तो प्रशांत पिछले विधानसभा चुनाव ही लड़वाना चाह रहे थे। देश भर के पार्टी नेताओं को दिल्ली के इस फरमान के खिलाफ खड़ा करना ज्यादा मुश्किल नहीं है क्योंकि चुनाव नहीं लड़ने से आखिर सवाल तो उन सभी राजनोताओं के अपने राजनैतिक भविष्य पर भी खड़ा हो गया है।

28 मार्च को आम आदमी पार्टी की राष्ट्रीय परिषद की बैठक है। इस परिषद में करीब 425 सदस्य हैं। लेकिन दिल्ली के सदस्यों की संख्या इसमें 50 से कम या उसके आसपास ही है। ऐसी स्थिति में आदर्शों को पर्दे के आगे रखकर और राजनीति को पर्दे के पीछे रख दिया जाए तो बहुमत को केजरीवाल के खिलाफ बनाया जा सकता है। बस इसी दम पर पूरा खेल चल रहा है।

खेल रचने वाले ये बखूबी समझते हैं कि केजरीवाल ज़िद्दी इंसान है....जो सोच लिया वो सोच लिया। दिल्ली में काम करके ही देश में वोट पाने का फार्मूला किसी हाल में नहीं बदलेगा (पंजाब इस पूरी बहस से अलग है वहां पार्टी चुनाव लडेगी, इसलिए पंजाब यूनिट भी केजरीवाल के पक्ष में नज़र आ रही है।)। ऐसी हालत में यदि राष्ट्रीय परिषद में योगेन्द्र और प्रशांत को निकालने के मुद्दे पर केजरीवाल अल्पमत में आ गए तो नाराज़ नेताजी सब छोड़-छाड बस दिल्ली में रम जाएंगे। और पार्टी का कामकाज पूरी तरह विरोधी कैंप के हाथों में चला जाएगा। जो नेता जिस राज्य में चुनाव लड़ना चाहते हैं लड़ पाएंगे। हारें या जीतें ये तय है कि केजरीवाल प्रचार में नहीं जाएंगे।

पर्दा गिरता है......

आम आदमी पार्टी के भीतर आदर्शों पर बने रहने की लड़ाई चल रही है। अगर चंदे की जांच करवा दी जाए, आरोपित उम्मीदवार जो अब विधायक हैं उनका इस्तीफा दिला दिया जाए, खर्च का पूरा हिसाब दे दिया जाए तो लडाई खत्म हो जाएगी

फिर बेशक पार्टी की राज्य इकाइयों को चुनाव लडने का फैसला खुद लेने का अधिकार मिले न मिले, योगेन्द्र जी को हरियाणा का निर्विरोध नेता माना जाए या न बनाया जाए, पार्टी संयोजक बदला जाए या न बदला जाए.......

मुस्कुराए मत, यही सच है....    

Friday, October 24, 2014

तो क्या अब फिर से इंडिया गेट और राजपथ पर प्रदर्शन करना पडेगा? लगता तो ऐसा ही है कि बिना आंदोलन सिस्टम हिलता ही नहीं है। फिर चाहे पिंकी मरने से पहले खुद ही क्यूं न बता गई हो कि किसने मारा और कैसे मारा। अब तो दीवाली मनाने पर भी शर्म आ रही है,...जब से ये विडियो देखा है लग रहा है पाप हो गया इस बार दीेये जला कर।


जिस वक्त हम पिंकी की मौत को एक और हादसा समझ कर दीवाली की अपनी खुशियों में डूब गये थे तब ग़म में डूबा पिंकी का परिवार इस वीडियो को फेसबुक पर अपलोड कर हमारा ध्यान अपनी ओर खींचने की कोशिश में लगा था। लेकिन हम शायद तब दीवाली की खुशियों में डूबे थे और अब छुट्टी खत्म होने पर अपने काम पर वापस लौटने की हड़बडी में हैं। तभी तो जिस सोशल नेटवर्किंग पर रातों रात किसी वीडियो को लाखों हिट मिल जाया करते हैं,... वहां बेचारी पिंकी की दर्द भरी आवाज़ तीन दिन में महज़ कुछ सौ लोगों तक पहुंच पायी है। बात बात पर तो वीडियो शेयर करने का चलन है हमारे यहां.....फिर इस बार क्या हो गया 'यंग जनरेशन' को? मुझे लगता था बुजुर्गों को क्या पता कि वक्त बदल गया है लेकिन मैं ग़लत था और हर वो बुजुर्ग सही जिसने हमेशा चर्चाओं में मुझसे ये कहा कि ' बेटा आंदोलन बार बार नहीं हुआ करते'

किसी और की तरफ क्यूं उंगली उठाना जब अपना ही सिक्का खोटा हो। बात बात पर बात का बतंगड बनाने वाले मीडिया चैनल भी तो पटाखे ही फोड रहे थे। शायद मीडिया के बने बनाये सिद्धांत यही कहते हैं कि शोर में एक व्यक्ति की आवाज़ को ज्यादा तवज्जों नहीं दी जाती। बहुमतवाद जो है हमारे समाज में.......

खैर अब दीवाली खत्म हो गयी तो कुछ लोगों को शायद ध्यान आये कि पिंकी उनकी बेटी भी हो सकती है....और अगर आज आप पिंकी के परिवार के साथ खडे नहीं हो सकते तो फिर उम्मीद मत कीजिएगा कि आपके परिवार में कुछ ऐसा होने पर कोई आपके दरवाजे आएगा। इस वीडियो को देखकर आपके जहन में उठ रहे बाकी तमाम सवालों के जवाब भी मिल जाएंगे फिर थोडी सी गैरत उभर आए तो अपने दोस्तों से भी शेयर कर लीजिएगा....क्योंकि शेयर करना तो चलन है हमारे समाज का।

Tuesday, February 5, 2013

मेरे दर्द को....इनाम मिला, इंसाफ नहीं।




मेरी पहली पुस्तक आपके समक्ष है। 'मरे दर्द को.... इनाम मिला, इंसाफ नहीं' एक बहादुर शिक्षिका के जीवन की, और उसके लिए इंसाफ की लडाई लड़ते उसके परिवार की कहानी है। ये पुस्तक सच्ची घटना पर आधारित है। सुशील कुमारी का अपहरण कर उसकी हत्या महज़ इसलिए कर दी गई क्योंकि उसने राजनैतिक रसूख वाले लोगों के दवाब में आकर बोर्ड परीक्षा में एक छात्रा को नकल करवाने से इनकार कर दिया था। दो दशक की कानूनी लड़ाई के बाद भी सुशील कुमारी के परिवार को इंसाफ नहीं मिला है....हां, उनके दर्द को कुरेदने के लिए सरकार ने दो दशक बाद राज्य के सर्वश्रेष्ठ शिक्षक को सुशील कुमारी स्मृति पुरस्कार का एलान ज़रुर कर दिया है।

Thursday, January 31, 2013

उसके हाथों मौत भी मिले तो मेरा नसीब है


दिल की उन हरकतों से अब दूर से हो गए हैं

शायद ज़िंदगी की राहों में मजबूर से हो गए हैं

अब अक्स कोई दिल को भटकाता नहीं है

शायद मुहब्बत में उसकी बा-सुरूर हो गए हैं।

 

कभी महफिल में रह कर भी तन्हा से थे

अब उसके आगोश में हर रंग नसीब है

गहराते हैं मेरी सोच के काले समंदर

लेकिन हर भंवर में वो हमेशा करीब है

 

गर खो भी जाऊं हरपल बदलती राहों में

सुकून बस इतना रहेगा कि मंज़िल करीब है

क्या हुआ जो कहने से अब डरने लगा हूं

उसके हाथों मौत भी मिले तो मेरा नसीब है

Saturday, November 6, 2010

दीवाना कहलाने की आदत नहीं रही....



अब हर ख्याल उसी का ख्याल है
हर सवाल बस उसी से सवाल है
लो गुज़र गया एक लम्हा और
लेकिन दिल का अब भी वही हाल है

ज़िंदगी कैसे सवालों से घिर गयी है
ये सोचने की भी फुरसत नहीं रही
किसके आगोश में कौन रहता है
देखने भर की अब नीयत नहीं रही

मैं कल आज और कल में उलझा हूं
किसी फैसले की अब ज़रुरत नहीं रही
दीवानगी अब लफ़्ज़ों में बची कहां है
कि दीवाना कहलाने की आदत नहीं रही।

नयी सुबह का इंतज़ार ले आया है यहां
मगर अंधेरों में रहने की आदत नहीं गयी
उलझी जुल्फ़ें फिर से दिखी एक बार
कि सुलझाने की अब कुव्वत नहीं रही

लो गुज़र गया एक लम्हा और
लेकिन दिल की हालत वैसी ही रही
क्योंकि
अब हर ख्याल उसी का ख्याल है
हर सवाल बस उसी से सवाल है....

Wednesday, September 29, 2010

अयोध्या : संविधान बड़ा या धर्म



हमारे देश में संविधान बड़ा है या धर्म? एक बार फिर पूरे देश के सामने यही सवाल खड़ा हो जाएगा जैसे ही अदालत इस देश के सबसे बड़े मुकद्दमे पर अपना फैसला सुनाएगी। फैसला चाहे किसी के भी हक में हो ये सवाल हर हाल में उठेगा कि देश कैसे चलेगा? सदियों से चली आ रही आस्था से, एक धर्म को दूसरे धर्म से बड़ा साबित करने पर तुले कट्टरपंथियों की मर्ज़ी से या फिर आपसी सहमति और सौहार्दपूर्ण वातावरण में एक दूसरे के साथ रहने के लिए बनाए गए आधुनिक नियमों यानि संविधान से। ऐसा नहीं कि ये सवाल देश के सामने पहले कभी न आया हो.....शाह बानो केस में भी अदालत पर धार्मिक परंपरा का दबाव भारी पड़ा था लेकिन तब सवाल शायद इतना विकट नहीं था। क्योंकि सवाल एक धर्म की परंपराओं और अदालती फैसले में से किसी एक को चुनने का था लेकिन अब तो देश के दो सबसे बड़े धर्म ही मुकद्दमे के दो पक्ष हैं। लोकतंत्र के नाते लोगों की भावनाओं के नाम पर उस वक्त देश की सबसे बड़ी पंचायत ने अदालती फरमान को बदलने का फैसला तो ले लिया। लेकिन यकीन जानिए अयोध्या में सदियों से चले आ रहे विवाद को आधुनिक भारत में उसी दिन गहरी नींव मिल गयी थी जब एक धार्मिक मामले को देश की संविधानिक संस्था के ऊपर रखा गया।
सवाल अब भी वही है.....संविधान बड़ा या धर्म? इस प्रश्न का उत्तर भी संविधान में ही तलाशना होगा। संविधान के तीसरी अनुसूची में देश के किसी भी संविधानिक पद के लिए जो शपथ का प्रारुप दिया गया है वह इस प्रकार है। " मैं, अमुक, ईश्वर की शपथ लेता हूं कि मैं विधि द्वारा स्थापित भारत के संविधान के प्रति श्रद्धा और निष्ठा रखूंगा" ......यानि पूरे देश को चलाने के लिए जिस संविधान की रचना की गई है उसका पालन करने के लिए भी कसम ईश्वर/अल्लाह की ही दिलाई जाती है। जबकि यूएस के संविधान में शपथ का प्रारुप कुछ ऐसा है। "I do solemnly swear (or affirm) that I will faithfully execute the office, and will to the best of my ability, preserve, protect and defend the Constitution of the United States."

सपष्ट है कि हमारे देश में धर्म को संविधान से ऊंचा दर्जा दिया गया है। इसलिए अयोध्या के फैसले को लेकर सरकार की तैयारी, न्यूज चैनलों की बेचैनी और आम आदमी की चिंता साफ़ समझ आती है। अब मुश्किल ये है कि इंसान के बनाए संविधान को सर्वोपरी दर्जा नहीं है और भगवान इस केस का निपटारा करने अवतरित होने नहीं वाले। ऐसे में दोनों ही धर्मों के कट्टरपंथियों को जब मौका मिलेगा वो खुद को अवतार घोषित कर खुद ही फैसला सुनाते रहेंगे। इस केस के फैसले पर शायद कभी पर्णविराम नहीं लगेगा इसलिए गुजारिश है उन लोगों से जो अपने जीते जी अयोध्या के विवादित स्थान पर मंदिर या मस्जिद देखना चाहते हैं।
उजाले का इंतज़ाम अब कर ही लो.....इस रात की कोई सुबह नहीं है।

Thursday, September 23, 2010

कॉमनवेल्थ गेम्स विलेज एक धार्मिक साजिश है?



शायद बात आपको थोड़ी अजीब लगे लेकिन साक्ष्य के साथ पेश कर रहा हूं। कॉमनवेल्थ गेम्स विलेज के लिए यमुना के फ्लड प्लेन पर जगह तलाशने और आपत्तियों के बाद भी उसी जगह पर अडे रहने का राज़ अब समझ आने लगा है। दरअसल कोशिश यमुना किनारे खेलगांव बनाने की नहीं बल्कि भव्य अक्षरधाम मंदिर के बराबर एक उतना ही विशाल मुस्लिम ढांचा तैयार करने की थी। यकीन नहीं आ रहा मेरी बात का तो ज़रा तस्वीर को गौर से देख लीजिए। आसमान से गेम्स विलेज कुछ ऐसा ही दिखता है 786 की शक्ल में। 786 क्या है ये शायद आपमें से बहुत लोग जानते ही होंगे लेकिन जिन्हें पूरी तरह से पता नहीं है उनकी जानकारी के लिए बता दूं कि अंकों में लिखा अल्लाह है 786.....अरब मुल्कों में बेहद प्रचलित इस नंबर का मतलब समझने के लिए आप इसे पढ़ सकते हैं

"786" is the total value of the letters of "Bismillah al-Rahman al-Rahim". In Arabic there are two methods of arranging letters. One method is the most common method known as the alphabetical method. Here we begin with Alif, ba, ta, tha etc. The other method is known as the Abjad method or ordinal method. In this method each letter has an arithmetic value assigned to it from one to one thousand. The letters are arranged in the following order: Abjad, Hawwaz, Hutti, Kalaman, Sa'fas, Qarshat, Sakhaz, Zazagh.

इसे आप महज़ इत्तेफ़ाक भी कह सकते हैं कि दुबई की एक कंपनी ने इस खेलगांव को तैयार किया है, इसका बिल्डिंग डिज़ाइन तैयार करने वाला भी एक मुस्लिम ही है और जिस जगह ये खेलगांव बना उसके बगल में ही भव्य अक्षरधाम मंदिर है। इस सब को अगर छोड़ भी दिया जाए तो ये बात गले नहीं उतरती कि अनजाने में ही खेलगांव का डिज़ाइन 786 की शक्ल का बन गया हो। क्योंकि खेलगांव का ऐसा बिल्डिंग डिज़ाइन जगह के बेहतर और ज्यादा से ज्यादा इस्तेमाल के भवन निर्माण सिद्धांत का भी साथ नहीं देता। इतनी बड़ी योजना बनाते वक्त आर्किटेक्ट ख़ासतौर पर ऐसा डिज़ाइन तैयार करते हैं जिसमें ज्यादा से ज्यादा ज़मीन का इस्तेमाल हो सके लेकिन खेलगांव का डिज़ाइन देखने से 7 की शक्ल में बनी इमारत में जगह के बेजा इस्तेमाल को साफ़ देखा जा सकता है।
खैर अगर धार्मिक मुद्दे को छोड़ भी दिया जाए तो खेलगांव कॉमनवेल्थ या किसी भी अंतर्राष्ट्रीय आयोजन के नियमों के भी विपरीत है। किसी भी अंतर्राष्ट्रीय आयोजन में किसी धर्म से जुड़े किसी चिह्न या सिंबल का इस्तेमाल नहीं किया जा सकता। खेलगांव बनाने वाली कंपनी इस बात से बखूबी वाकिफ़ है इसलिए जब मैंने ईमेल कर इस विषय पर कंपनी से जानकारी लेनी चाही तो उनके सभी अफ़सरों के हाथ पांव फूल गये। कंपनी के जन सूचना विभाग की इंचार्ज जो पहले मेल करते ही मिनटों में जवाब देने की बात कर रही थी बार बार रिमाइंडर देने पर भी उसका जवाब आना तो दूर उसने हमारा फोन तक रिसीव करना बंद कर दिया। सच क्या है ये तो कंपनी या इस योजना के सूत्रधार ही बता सकते हैं लेकिन ये सब चीज़ें एक शक ज़रुर पैदा करती हैं और कई सवालों को भी जन्म देती हैं। सवाल ये है कि कहीं ये अक्षरधाम की चमक को फ़ीका करने की कोशिश तो नहीं? कहीं ये बीजेपी कार्यकाल में बने अक्षरधाम मंदिर का खेलगांव के रुप में कांग्रेस कार्यकाल में दिया गया जवाब तो नहीं? सवाल ये भी है कि अगर ये एक धार्मिक साजिश है तो सरकार में बैठे कौन लोग इस साजिश का हिस्सा हैं?

Tuesday, May 18, 2010

कोई मानेगा कि ये न्यूज़ चैनल की एंकर है :-)


जहां टिक्की पापड़ी दिखे नहीं कि ये अपना एंकर वहीं डाल लेती है.....इस तस्वीर को देखकर भला कौन यक़ीन करेगा कि टीवी पर संजीदा सी दिखने वाली ये वहीं नुक़्ता क्वीन है.....और ये तस्वीर देखकर इसके बेंडिट क्वीन वाले रिएक्शन की तो मैं पहले ही कल्पना कर रहा हूं..... :-)

दफ़्तर में सोना कोई गुनाह नहीं है ?


इस बेपरवाही को देखकर तो यही लगता है मानो इस दफ़्तर में सोना कोई गुनाह नहीं है। और तो और सोने वाले ने अपनी फ़टी जुराब की भी परवाह नहीं की। कोई देखे तो देखे हम तो फ़टेहाल यूं ही सोएंगे...........पूरे खर्राटे नीचे दिए वीडियो में सुनिए....

Wednesday, April 28, 2010

Commonwealth games: Developing or destroying Delhi



It was a silent sunday morning. A truck full of red stone reached karol bagh market. Local residents were happy that beautification work for the road in their area is at last going to start. The stone used to build road divider years back is now getting older and not giving a nice look to the visitors. Old stone used in the divider and pavement of the road is being replaced by the new red stone and the waste stone was loaded into trucks and moved from there to an unknown place.

Every cornor of the city is getting its share of development in the name of Commonwealth games. Thosands of crores of rupees flowing down the drain, resulting into tons of building waste coming out of renovation work. Anand Parbat ridge area is also getting its share of the commonwealth games development but in the form of hundrads of tons of building waste and stone pieces every day brought from different parts of the city and dumped here. Local residents are not happy with the development taking place in the city as they are getting only the destruction of the ridge and new slums as a result of this development work. May be things are looking like a puzzle so let me open the string of the story.

Anand Parbat is a part of Aravali range with rocks and a green of about 200 acres surrounded by industrial area of the central delhi. This land belongs to DDA and was full of green cover till few months back. But now jhuggi mafia along with builders & DDA officials have converted this area into dumping ground for the building waste. Builders working on the commonwealth games projects found a nearby place to dump their waste building material and mafia got success in making this area a plane ground by dumping as much as 50 feet of building material. Mafia sell small jhuggi plots on these grounds to the migrated labour class in Rs. 60000 to 80000. Residents of the nearby area are so surprised to see the speed of dumping work going on here and the number of new slums developing overnight on the ground made by leveling the rocks. One resident Asharam Gautam made several comlaints to the nearest police station and DDA officials, refering to the supreme court judgement in the year 2001. Supreme court directed the concerned agencies to stop any dumping in the area by imidiate effect and declared any dumping in the ridge area as illegal. As per another local resident Chander prakash ‘ I born at this place only and we use to play in these rocks. This area was very green but almost destroyed over the past two years by dumping building waste and by development of new jhuggis on the leveled land’.

I spoke to the local MLA Rajesh Lilothia about the dumping work & the making of new jhuggis in the area. He was very comfortable in accepting that ‘this is in our knowledge that a large number of jhuggis are coming up in the area and we informed about this to DDA authorities’. So easy to say that the other agency is responsible for the issue. Later by sources I got to know that the residents of the new slum use MLA’s letter of recommendation to get a new electricity connection. Government made promises that no slum will be there in Delhi by the time of commonwealth games. But the true story is about involvement of elected members of the government as well as the officials in providing a ground for creation of new slum in the capital.

If the work will continue the same way as it is going on, Anand Parbat ridge will vanish by the time Commonwealth games take place. Government need to understand that city is not all about high rise buildings and stones placed for beautification, it is also about the natural belongings of the city. If development in the name of commonwealth games keep spending the city’s natural tresuary, the claim by government will come true.

Yes, as government claim, people will always remember the work done in the name of commonwealth games. But these memories are not going to be sweet for sure.

Sunday, April 4, 2010

कल रात मैंने एक सपना देखा

सपनों की कोई सरहद नहीं होती इसलिए जो जागते हुए दिल नहीं सोच पाता, सपनों में अकसर वो ख्याल आ जाते हैं। ऐसा ही एक ख्याल लिख रहा हूं।


कल रात मैंने एक सपना देखा
पहली बार इस सपने में न कोई लडकी थी
न यार दोस्त थे और न मां-बाप थे।
इन सबसे कुछ हटकर कल रात मैंने एक सपना देखा
इस सपने में मैंने भारत देश अपना देखा


आज़ादी की लड़ाई भी देखी, शहीदों की चिताएं भी देखी
सेनानियों का जुनून देखा और आज़ादी का सुकून देखा
देश की करंसी पर बैठे उन महान नेताओं को देखा
जिन्होंने आज़ाद मुल्क को दो टुकड़ों में फेंका
स्वतंत्रता संग्राम के उन सेनानियों को देखा
जिन्होंने सिर पर लाठियां और सीने पर गोलियां खाई
तो देखा इस महासंग्राम के उन नेताओं को भी
जिन्हें कभी खंरोच तक नहीं आई
जो इज्ज़त इस देश ने बलिदानों से पाई थी
वो इज़्ज़त इन चंद नेताओं ने मिट्टी में मिलाई थी
जिस आज़ादी को सींचा था नौजवानों ने अपने ख़ून से
वो आज़ादी राष्ट्रपिता ने हमें भीख़ में दिलवाई थी

इन चंद पहलुओं का इतिहासकारों की नज़रों से बचना देखा
कल रात मैंने एक सपना देखा
इस सपने में मैंने भारत देश अपना देखा

........पूरी कविता के लिए इस लिंक पर क्लिक करें........ http://anuragdhanda.blogspot.com/