Friday, September 14, 2007

देवी बोली राम राम!

जय श्री राम!
हाँ भाई बोलना पड़ता है वर्ना हिंदुवादी संगठन नाराज हो जायेंगे और लगेंगे सड़क जाम करने ......लेकिन बोल कर भी तो यूपीए सरकार से नाराजगी मोल ले ही ली है क्योंकि सरकार की मानें तो रामायण, राम ये सब कहानियों से ज्यादा कुछ नहीं हैं रामसेतु मामले में कोर्ट में दिया गया सरकार का बयान जानकर आश्चर्य हुआ इतना तो समझ आ गया कि लेफ्ट किसी भगवान् में विश्वास नहीं करता और कोर्ट में कही गयी भाषा कॉंग्रेस की कम और लेफ्ट की ज्यादा लग रही थी लेकिन परमाणु मुद्दे पर लेफ्ट को टका सा जवाब देने वाली कॉंग्रेस इस मामले में कैसे राज़ी हो गयी ये ज़रूर तहकीकात का विषय था समझने का विषय ये भी था कि राम का मुद्दा दोबारा बीजेपी के हाथ में देने की मूर्खतापूर्ण हरकत कॉंग्रेस जैसा राजनैतिक रुप से परिपक्व दल कैसे कर सकता हैखैर मुद्दा हाथ आते ही हिंदुवादी संगठनों ने सारे देश में हाहाकार मचाने की तैयारी शुरू कर दी लेकिन इससे पहले कि राम नाम लोगों के दिलों से निकल कर सडकों पर आता देवी का अवतार लेकर सोनिया गाँधी अवतरित हो गयी देश से जुडे अधिकतर मुद्दों पर खामोश रहने वाले मुख से चंद शब्द फूटे और तुरंत कॉंग्रेस की तरफ से बयान आने लगे कि राम के बारे में कही सब बातें वापस ली जायेंगी सब यही बात कर रहे थे कि सोनिया गाँधी ने सही समय पर सही बात बोली तब ये ख़याल मेरे दिमाग में आया कि मंत्री से लेकर संतरी तक जिस दर पर माथा टेकते हैं उस दर तक इतनी बड़ी बात कोर्ट में कहे जाने से पहले न पहुंची हो ये कैसे मुमकिन है और ये ख़याल आते ही पूरी तस्वीर साफ नज़र आने लगी समझ आने लगा कि किस तरह राम के नाम पर लोगों को दोबारा बेवक़ूफ़ बनाया गया है और जिस राम नाम का इस्तेमाल कर पहले बीजेपी ने फ़ायदा उठाया था आज उसी का इस्तेमाल आम लोगों कि नज़रों में देवी गाँधी का क़द बढ़ाने के लिए किया गया है आने वाले चुनावों के लिए रणनीतिक तैयारी शुरू हो गयी है, परमाणु मुद्दे से चुनावी तैयारी का बिगुल जो लेफ्ट ने बजाया था सोनिया ब्रिगेड ने दुदुम्भी बजा कर उसका जवाब दे दिया है कुछ लोगों का बेशक ये मनाना है कि इस मुद्दे के उठने से बीजेपी को फायदा होगा मगर हकीकत में इस गहरी चाल को शायद ही कोई समझ पा रहा है पुरातत्व विभाग के पूर्व संयुक्त निदेशक के ऍन दीक्षित से मुलाक़ात हुई तो जिज्ञासावश पूछ बैठा कि रामसेतु की हक़ीकत जानना क्या वाकई संभव नही है तो जवाब मेरी उम्मीद के विपरीत ही था कि अगर सरकार चाहे तो एक सर्वे करवा कर चंद दिनों में सच्चाई सामने आ सकती है पर फिर मैंने सोचा कि अगर सच्चाई ही सामने लानी होती तो ये तमाशा ही क्यों होता?

Monday, September 10, 2007

पत्रकारिता या कमीनापन!

आज एक बूढे बाप की स्टोरी कर रहा था जिसका बेटा सोलह साल पहले डीटीसी बस की चपेट में आ गया था। जैसे-जैसे इस स्टोरी पर आगे बढता गया व्यवस्था से घृणा सी होने लगी। लेकिन ऐसा कुछ पल के लिए था। आखिर मैं भी उस व्यवस्था का एक हिस्सा ही था। मैं और कैमरामैन कुछ देर बाद गाड़ी में ये ज़िक्र कर रहे थे कि किस चालाकी से हमने उस बूढे बाप से उसके बेटे का ज़िक्र कर पहले उसे रुलाया और फिर उसे रोते हुए शूट कर लिया ताकि कहानी मार्मिक हो सके। और सच भी तो है जब तक स्क्रीन पर कोई रो चिल्ला ना रहा हो, तब तक टीवी देखता कौन है। मगर कुछ भी कहिये कहानी में दम तो ज़रुर था। उन बूढे मां बाप का सोलह साल तक कोर्ट के चक्कर लगाना वो कारण नहीं था जो मुझे उस वक्त परेशान कर रहा था। मैं ये सोचकर परेशान था कि जब-जब ये लोग कोर्ट में गये होंगे या मुआवजे का ज़िक्र आया होगा तब-तब उन्हें उनका इकलौता बेटा भी याद आया होगा और हर बार आंसू आंख से चाहे ना बहे हों दिल तो ज़रुर रोया होगा। सवाल मन में हज़ारों थे लेकिन मेरे पास एक का भी जवाब नहीं था। मुझे अच्छी तरह मालूम था कि मैं चाहे कितनी भी अच्छी स्टोरी क्यों ना कर लूं यहां कुछ बदलने वाला नहीं है। हां अच्छी स्टोरी के लिए कुछ लोगों से वाहवाही ज़रुर मिल जायेगी लेकिन जब कोई इस स्टोरी की तारीफ़ करेगा तो इसका मतलब किसी पर तो इसका असर हो ही रहा है। कुछ और ना सही कम से कम लोगों का ये वहम तो टूटेगा कि अदालतों में अकसर इंसाफ़ मिल जाया करता है। काश मुआवजा मिलने से पहले ये बूढा बाप मर जाये यही सोचते सोचते स्क्रिप्ट की आखिरी पंक्ति भी लिख डाली।

Saturday, September 8, 2007

अधूरा में आप सबका स्वागत है!

ब्लॉग की दुनिया में एक अधूरा सा कदम रख रहा हूँ! पत्रकारिता की दुनिया से हूँ इसलिये उसी ओर की बातें हो सकता है कुछ ज्यादा हों! लेकिन ये मंच महज़ पत्रकारिता से जुड़ा हो ऐसा नहीं है जिसे भी विचारों की खुजली हो यहाँ आकर अपनी खुजली मिटा सकता है! बाकी रही पत्रकारिता की बात तो ख़बरिया चैनलों में कहां अब पत्रकारिता बची है बस एक अधूरा सा ख़्वाब है जो हम जैसे लोग अपनी आंखों में लिए टेलिविज़न के इस भूलभुलैया में चले आये हैं ये सोच कर कि हम इस अंधेरगर्दी को ख़त्म करेंगे, पर सच कहूं तो चंद महीनों के थोड़े से वक़्त में ही ये एहसास हो गया है कि काम इतना आसान भी नही है जितना हम सोच बैठे थे! ना चाहते हुए भी इस थोड़े से वक़्त में इस कीचड का हिस्सा बने रहने के लिए वो सब कुछ किया है जिससे कभी नफरत किया करते थे! और कुछ महीने पहले तक ये कहने वाला इन्सान कि ऐसे कैसे चलता है अब कभी कभार ये कहने लगा है कि सब चलता है यार !