Wednesday, September 2, 2015

किस मुंह से कहेंगे?….’आपके साथ, आपके लिए- सदैव....दिल्ली पुलिस’

        लिखना नहीं चाहता था लेकिन लिख रहा हूं क्योंकि आज झल्लाहट बहुत है और लिखने से भड़ास निकल जाती है। लेकिन ये साफ कर दूं कि पूरी पुलिस फोर्स से मेरी कोई शिकायत नहीं, बस आज का तजुर्बा ऐसा रहा कि सोच कर परेशान हूं....आखिर सिस्टम कब सुधरेगा? कब ऐसा होगा कि पुलिस से बात करते हुए या बुलाते हुए एक आम इंसान को डर न लगे, झिझक न हो। पुलिस के ऐसे व्यवहार की वजह क्या है ये वो जानें या जानने की कोशिश करें। वो कितने घंटे ड्यूटी करते हैं, कितनी कठिन परिस्थितियों में काम करते हैं ये सब तर्क अपनी जगह, लेकिन उनसे मिलकर अगर आपको ये लगे कि कानून की मदद न ही लेता तो अच्छा था या वक्त के बर्बाद होने का अहसास हो तो फिर ये इतनी बड़ी पुलिस फोर्स और इतनी व्यवस्थाओं या इतने नियम कानून...सब बेमानी हैं।

किसी भी पुलिस अधिकारी के नाम का ज़िक्र इसलिए नहीं करुंगा क्योंकि उससे बात बहुत हल्की हो जाएगी और उस पुलिस अधिकारी के खिलाफ़ कुछ इस तरह कार्रवाई की जाएगी मानो पूरी फोर्स में वही अकेला लोगों का और सिस्टम का गुनहगार है। हां, पुलिस खुद अपने गिरेबान में झांकना चाहे तो उनके रिकार्ड में काफी साक्ष्य मौजूद हैं जिन्हें खंगाल कर सब कुछ पता चल सकता है।
चलिये कहानी बयां करता हूं। सुबह करीब 10 बजे का वक्त था। नई दिल्ली स्टेशन के पास मिंटो रोड़ की रेड लाइट पर ऑटो चालक हंगामा कर रहे थे...आने जाने वाले ऑटो और टैक्सी को रुकवाया जा रहा था। मैं ये सब कवर कर रहा था। हमारी गाड़ी के ड्राइवर को भी उत्सुकता हुई तो वो भी गाड़ी लॉक कर बाहर निकल आया। कुछ देर बाद जब ड्राइवर गाड़ी की तरफ मुड़ा तो देखा कि एक व्यक्ति साइड के दरवाजे से गाड़ी में दाखिल हो चुका था। ड्राइवर ने उसे आवाज़ लगाई कि क्या कर रहे हो......तो उस व्यक्ति ने पलट कर जवाब दिया ...मेरी गाड़ी है, खराब हो गई है ...देख रहा था....इसे ठीक करवाने लेकर जा रहा हूं। ड्राइवर अपनी ही गाड़ी के बारे में ये जवाब सुनकर सारा माजरा समझ गया और उस व्यक्ति को दबोच लिया। ड्राइवर ने हमें आवाज़ लगाई.....हम भी कुछ दूर ही खडे थे। आवाज़ सुनकर गाड़ी के पास आए तो पूरी बात समझ आयी। हमने उस व्यक्ति को गाड़ी में पीछे की तरफ बिठाकर दरवाजा बंद कर लिया और पीसीआर कॉल कर दी। 3 कॉल और 15 मिनट के इंतज़ार के बाद पीसीआर पहुंची। लेकिन हां, इस बीच कमला मार्किट थाने से एक महाशय का फोन आया। उस पूरी वार्तालाप का ज़िक्र यहां नहीं कर रहा हूं वो आप खुद सुन सकते हैं। ऑडियो रिकार्डिंग ब्लॉग में जारी कर रहा हूं। 



मैं हैरान था। गाड़ी चोरी करने की कोशिश कर रहे एक व्यक्ति को पकड़ कर पुलिस को बुलाया तो मुझसे पूछा जा रहा है कि क्या अपनी गाड़ी थाने में जमा करा दोगे? मुझे कानून समझाया गया कि गाड़ी जमा कराए बिना चोर को कैसे पकड़ सकते हैं? बहरहाल पीसीआर की गाड़ी भी आई और लगभग उसी वक्त  ये महाशय भी पहुंचे जिन्हें पीसीआर पुलिसकर्मी ने इन्वेस्टिगेटिंग ऑफिसर के तौर पर इंट्रोड्यूस करवाया। इसके बाद पीसीआर वाले पुलिस कर्मी ने पकड़े गये व्यक्ति का नाम पता पूछा और मामला आईओ साहब के हवाले करके चल दिये। अब इन आईओ साहब ने मुझे फिर वही कानून बताया कि मामला तब बनेगा जब मैं अपनी गाड़ी जमा करवाऊंगा। ये पूरा प्रकरण भी मेरे मोबाइल के कैमरे में मौजूद है लेकिन मैं इस ब्लॉग में साझा नहीं कर रहा हूं क्योंकि मैं पहले ही बता चुका हूं कि ऐसा करने से ये मामला बेहद हल्का बना दिया जाएगा और इस आईओ को बलि का बकरा बना कर ये दिखा दिया जाएगा कि मानो यही इकलौता ऐसा पुलिसकर्मी है।

खैर बहस जारी रही और फिर ये तय हुआ कि थाना करीब ही है वहीं चल कर देखा जाए कि क्या करना है। थाने चलने की बात आई तो आप सोच रहे होंगे कि पुलिस उस व्यक्ति को थाने लेकर जाएगी और हमें भी वहीं पहुंचना होगा। जी नहीं जनाब, आप दिल्ली पुलिस को कम करके आंक रहे हैं। दरअसल आईओ साहब अपनी मोटरसाइकिल पर वहां पहुंचे थे और पीसीआर ने ये सब तो पूछा नहीं जाने से पहले.....। तो अब ज़रा सीन सोचिये......पुलिस के आईओ साहब अपनी बाइक पर चल दिए और हम पीछे पीछे अपनी गाड़ी में उस चोर को बिठाकर ले जा रहे हैं। ये सब होते होते कुछ फिल्मी सीन दिमाग में घूम रहे थे। हंसी भी आ रही थी और दिमाग भी खराब हो रहा था। लेकिन थाने पहुंचने तक पुलिस के इस रवैये से जो मेरे मन में विचार आया या मैं कहूं कि किसी भी इंसान के मन में उस वक्त आया होता वो ये था, कि अव्वल तो शिकायत दर्ज करवाना ही मुश्किल है। लेकिन अगर शिकायत करवा भी दी तो फिर मुझे ही फोन कर करके या अधिकारियों से बात करके उसे फोलो करना पड़ेगा। और शिकायत चूंकि मेरे ड्राइवर के नाम से होनी थी तो साफ दिख रहा था कि उसे कितना परेशान होना पड़ेगा।

थाने पहुंच कर हम गाड़ी में उस चोर को लेकर बैठे रहे और आईओ साहब आराम से अपनी बाइक थाने में पार्क करके आये। अंतत: मेरे ड्राइवर ने पुलिस को सहमति दे दी कि उसे कोई शिकायत नहीं करनी है और उसने शक के आधार पर इस व्यक्ति को पकड़ लिया था। ये एक कोरे कागज़ पर लिखकर हमें जाने दिया गया और वो चोर आराम से आईओ साहब के साथ टहलता हुआ चला गया। आगे क्या हुआ होगा मैं कमेंट नहीं करना चाहता क्योंकि तथ्यों के आधार पर मैं यहीं तक अपनी बात रख सकता हूं।

मेरी नाराज़गी किसी पुलिसकर्मी विशेष से नहीं है, मैं ये भी जानता हूं कि मैं चाहता तो ये शिकायत दर्ज करवा भी सकता था। कुछ दोस्तों ने बाद में भी कहा कि सीनियर अधिकारियों से बात करके अभी भी शिकायत दर्ज हो सकती है। लेकिन इन सब बातों से मेरे मन में उठा सवाल शांत नहीं हो पाता इसलिए इनमें से कुछ भी मैंने नहीं किया। मेरा सवाल बस इतना सा है कि किसी घटना के बाद पुलिस को सूचित करते वक्त पहला ख्याल क्या आना चाहिये? अगर दिल्ली पुलिस के आला अधिकारियों को ये सवाल जायज़ लगे तो कृपया कोशिश कीजिए कि लोगों का अनुभव पुलिस कर्मियों के साथ अच्छा हो....सिस्टम में बड़ा बदलाव इन छोटी छोटी बातों से ही हो सकता है। उम्मीद है दिल्ली पुलिस के साथ अगला तजुर्बा ऐसा नहीं होगा।


नोट – इस पूरे घटनाक्रम के दौरान पुलिसकर्मी इस बात से पूरी तरह वाकिफ़ थे कि मैं एक पत्रकार हूं J ( उन सब दोस्तों के लिए जिन्हें लगता है कि मीडियाकर्मी होने से कुछ विशेष राहत मिलती है)


1 comment:

Unknown said...

इस पूरे घटनाक्रम में सबसे बड़ी ख़ामी यह रही कि चोर को सजा दिलाने के प्रति शिकायतकर्ता और जांच अधिकारी दोनों ही गंभीर नहीं थे। शिकायतकर्ता जहां FIR दर्ज़ होने की सूरत में जांच अधिकारी द्वारा बतलाई गई कानूनी औपचारिकताओं जैसे शिकायतकर्ता का बयान दर्ज़ करना, उसके आधार पर FIR दर्ज़ करना, कार को केस प्रॉपर्टी के तौर पर थाना में जमा करना,उसके बाद सुपरदारी पर गाडी रिलीज़ कराना और बाद में ट्रायल के दौरान अदालत में गवाही के लिए पेश होना तथा गाड़ी को भी गवाही के दौरान कोर्ट में पेश करना इत्यादि के बारे में सुनकर चोर के ख़िलाफ़ कार्यवाही से पीछे हट गया, वहीँ जांच अधिकारी का रवैया बहुत दोषपूर्ण और गैर पेशेवराना था। अगर जांच अधिकारी चोर को सजा दिलाने के प्रति गंभीर होता, अपने काम में पारंगत होता और अपने पेशे के प्रति ईमानदार होता तो शिकायतकर्ता से उपरोक्त वर्णित कानूनी औपचारिकताओं का वर्णन करके उसे हतोत्साहित करने की बजाए अपराध को 379/411 IPC के स्थान पर 379/511 IPC के तहत दर्ज़ करता (जिसका ज्ञान शायद I.O. को नहीं था) जिसमें गाड़ी को सीज़ करने की भी आवश्यकता नहीं थी इसलिए शिकायतकर्ता को भी कोई ऐतराज़ नहीं होता। शिकायतकर्ता अगर थाना प्रभारी या उनके समकक्ष अधिकारी से मिलकर हालात बयान करता तो भी चोर के ख़िलाफ़ कार्यवाही अवश्य होती। (मैं यहां पर्दा नहीं गिराऊंगा अर्थात्....... adhura)