Wednesday, September 2, 2015

किस मुंह से कहेंगे?….’आपके साथ, आपके लिए- सदैव....दिल्ली पुलिस’

        लिखना नहीं चाहता था लेकिन लिख रहा हूं क्योंकि आज झल्लाहट बहुत है और लिखने से भड़ास निकल जाती है। लेकिन ये साफ कर दूं कि पूरी पुलिस फोर्स से मेरी कोई शिकायत नहीं, बस आज का तजुर्बा ऐसा रहा कि सोच कर परेशान हूं....आखिर सिस्टम कब सुधरेगा? कब ऐसा होगा कि पुलिस से बात करते हुए या बुलाते हुए एक आम इंसान को डर न लगे, झिझक न हो। पुलिस के ऐसे व्यवहार की वजह क्या है ये वो जानें या जानने की कोशिश करें। वो कितने घंटे ड्यूटी करते हैं, कितनी कठिन परिस्थितियों में काम करते हैं ये सब तर्क अपनी जगह, लेकिन उनसे मिलकर अगर आपको ये लगे कि कानून की मदद न ही लेता तो अच्छा था या वक्त के बर्बाद होने का अहसास हो तो फिर ये इतनी बड़ी पुलिस फोर्स और इतनी व्यवस्थाओं या इतने नियम कानून...सब बेमानी हैं।

किसी भी पुलिस अधिकारी के नाम का ज़िक्र इसलिए नहीं करुंगा क्योंकि उससे बात बहुत हल्की हो जाएगी और उस पुलिस अधिकारी के खिलाफ़ कुछ इस तरह कार्रवाई की जाएगी मानो पूरी फोर्स में वही अकेला लोगों का और सिस्टम का गुनहगार है। हां, पुलिस खुद अपने गिरेबान में झांकना चाहे तो उनके रिकार्ड में काफी साक्ष्य मौजूद हैं जिन्हें खंगाल कर सब कुछ पता चल सकता है।
चलिये कहानी बयां करता हूं। सुबह करीब 10 बजे का वक्त था। नई दिल्ली स्टेशन के पास मिंटो रोड़ की रेड लाइट पर ऑटो चालक हंगामा कर रहे थे...आने जाने वाले ऑटो और टैक्सी को रुकवाया जा रहा था। मैं ये सब कवर कर रहा था। हमारी गाड़ी के ड्राइवर को भी उत्सुकता हुई तो वो भी गाड़ी लॉक कर बाहर निकल आया। कुछ देर बाद जब ड्राइवर गाड़ी की तरफ मुड़ा तो देखा कि एक व्यक्ति साइड के दरवाजे से गाड़ी में दाखिल हो चुका था। ड्राइवर ने उसे आवाज़ लगाई कि क्या कर रहे हो......तो उस व्यक्ति ने पलट कर जवाब दिया ...मेरी गाड़ी है, खराब हो गई है ...देख रहा था....इसे ठीक करवाने लेकर जा रहा हूं। ड्राइवर अपनी ही गाड़ी के बारे में ये जवाब सुनकर सारा माजरा समझ गया और उस व्यक्ति को दबोच लिया। ड्राइवर ने हमें आवाज़ लगाई.....हम भी कुछ दूर ही खडे थे। आवाज़ सुनकर गाड़ी के पास आए तो पूरी बात समझ आयी। हमने उस व्यक्ति को गाड़ी में पीछे की तरफ बिठाकर दरवाजा बंद कर लिया और पीसीआर कॉल कर दी। 3 कॉल और 15 मिनट के इंतज़ार के बाद पीसीआर पहुंची। लेकिन हां, इस बीच कमला मार्किट थाने से एक महाशय का फोन आया। उस पूरी वार्तालाप का ज़िक्र यहां नहीं कर रहा हूं वो आप खुद सुन सकते हैं। ऑडियो रिकार्डिंग ब्लॉग में जारी कर रहा हूं। 



मैं हैरान था। गाड़ी चोरी करने की कोशिश कर रहे एक व्यक्ति को पकड़ कर पुलिस को बुलाया तो मुझसे पूछा जा रहा है कि क्या अपनी गाड़ी थाने में जमा करा दोगे? मुझे कानून समझाया गया कि गाड़ी जमा कराए बिना चोर को कैसे पकड़ सकते हैं? बहरहाल पीसीआर की गाड़ी भी आई और लगभग उसी वक्त  ये महाशय भी पहुंचे जिन्हें पीसीआर पुलिसकर्मी ने इन्वेस्टिगेटिंग ऑफिसर के तौर पर इंट्रोड्यूस करवाया। इसके बाद पीसीआर वाले पुलिस कर्मी ने पकड़े गये व्यक्ति का नाम पता पूछा और मामला आईओ साहब के हवाले करके चल दिये। अब इन आईओ साहब ने मुझे फिर वही कानून बताया कि मामला तब बनेगा जब मैं अपनी गाड़ी जमा करवाऊंगा। ये पूरा प्रकरण भी मेरे मोबाइल के कैमरे में मौजूद है लेकिन मैं इस ब्लॉग में साझा नहीं कर रहा हूं क्योंकि मैं पहले ही बता चुका हूं कि ऐसा करने से ये मामला बेहद हल्का बना दिया जाएगा और इस आईओ को बलि का बकरा बना कर ये दिखा दिया जाएगा कि मानो यही इकलौता ऐसा पुलिसकर्मी है।

खैर बहस जारी रही और फिर ये तय हुआ कि थाना करीब ही है वहीं चल कर देखा जाए कि क्या करना है। थाने चलने की बात आई तो आप सोच रहे होंगे कि पुलिस उस व्यक्ति को थाने लेकर जाएगी और हमें भी वहीं पहुंचना होगा। जी नहीं जनाब, आप दिल्ली पुलिस को कम करके आंक रहे हैं। दरअसल आईओ साहब अपनी मोटरसाइकिल पर वहां पहुंचे थे और पीसीआर ने ये सब तो पूछा नहीं जाने से पहले.....। तो अब ज़रा सीन सोचिये......पुलिस के आईओ साहब अपनी बाइक पर चल दिए और हम पीछे पीछे अपनी गाड़ी में उस चोर को बिठाकर ले जा रहे हैं। ये सब होते होते कुछ फिल्मी सीन दिमाग में घूम रहे थे। हंसी भी आ रही थी और दिमाग भी खराब हो रहा था। लेकिन थाने पहुंचने तक पुलिस के इस रवैये से जो मेरे मन में विचार आया या मैं कहूं कि किसी भी इंसान के मन में उस वक्त आया होता वो ये था, कि अव्वल तो शिकायत दर्ज करवाना ही मुश्किल है। लेकिन अगर शिकायत करवा भी दी तो फिर मुझे ही फोन कर करके या अधिकारियों से बात करके उसे फोलो करना पड़ेगा। और शिकायत चूंकि मेरे ड्राइवर के नाम से होनी थी तो साफ दिख रहा था कि उसे कितना परेशान होना पड़ेगा।

थाने पहुंच कर हम गाड़ी में उस चोर को लेकर बैठे रहे और आईओ साहब आराम से अपनी बाइक थाने में पार्क करके आये। अंतत: मेरे ड्राइवर ने पुलिस को सहमति दे दी कि उसे कोई शिकायत नहीं करनी है और उसने शक के आधार पर इस व्यक्ति को पकड़ लिया था। ये एक कोरे कागज़ पर लिखकर हमें जाने दिया गया और वो चोर आराम से आईओ साहब के साथ टहलता हुआ चला गया। आगे क्या हुआ होगा मैं कमेंट नहीं करना चाहता क्योंकि तथ्यों के आधार पर मैं यहीं तक अपनी बात रख सकता हूं।

मेरी नाराज़गी किसी पुलिसकर्मी विशेष से नहीं है, मैं ये भी जानता हूं कि मैं चाहता तो ये शिकायत दर्ज करवा भी सकता था। कुछ दोस्तों ने बाद में भी कहा कि सीनियर अधिकारियों से बात करके अभी भी शिकायत दर्ज हो सकती है। लेकिन इन सब बातों से मेरे मन में उठा सवाल शांत नहीं हो पाता इसलिए इनमें से कुछ भी मैंने नहीं किया। मेरा सवाल बस इतना सा है कि किसी घटना के बाद पुलिस को सूचित करते वक्त पहला ख्याल क्या आना चाहिये? अगर दिल्ली पुलिस के आला अधिकारियों को ये सवाल जायज़ लगे तो कृपया कोशिश कीजिए कि लोगों का अनुभव पुलिस कर्मियों के साथ अच्छा हो....सिस्टम में बड़ा बदलाव इन छोटी छोटी बातों से ही हो सकता है। उम्मीद है दिल्ली पुलिस के साथ अगला तजुर्बा ऐसा नहीं होगा।


नोट – इस पूरे घटनाक्रम के दौरान पुलिसकर्मी इस बात से पूरी तरह वाकिफ़ थे कि मैं एक पत्रकार हूं J ( उन सब दोस्तों के लिए जिन्हें लगता है कि मीडियाकर्मी होने से कुछ विशेष राहत मिलती है)


Sunday, May 17, 2015

दिल्ली की ‘अजीब जंग’

दिल्ली में फिलहाल जो कुछ चल रहा है उसे देखकर ये साफ समझ आता है कि केजरीवाल सरकार के तीन महीने के कामकाज और सरकार चलाने के तरीके ने सिस्टम की चूलें हिला दी हैं। वरना ऐसा भी क्या कि जिस लोकतांत्रिक ढांचे में पूरा देश चुनी हुई सरकार की मर्जी से चलता है, राज्य चुनी हुई सरकार की मर्जी से चलते हैं, वहां दिल्ली में अब भी वायसराय सिस्टम ज़िंदा नज़र आ रहा है। दिल्ली के 1.5 करोड़ लोगों ने ऐसा क्या गुनाह कर दिया कि उनके वोट की वो कीमत नहीं जो देश के किसी भी और हिस्से में रहने वाले मतदाता की है। ये सच है....क्योंकि अगर ऐसा नहीं होता तो नियुक्त किए गए एक व्यक्ति का आदेश कतई 1.5 करोड़ लोगों द्वारा चुने गए प्रतिनिधियों की राय पर हावी नहीं हो सकता। कानून उसे पढ़ने वाले के नज़रिए के हिसाब से तोड़े मरोड़े जाते रहे हैं लेकिन इस बात से शायद ही किसी को इनकार हो कि भारत के संविधान की मूल भावना चुनी हुई सरकार को फैसले लेने का हक़ देती है।

दिल्ली की इस अजीब जंग को समझने से लिए ज़रुरी है कि पहले वो चश्मा उतारा जाए जो फिलहाल मौजूद तस्वीर दिखा रहा है। तस्वीर में फिलहाल यही नज़र आ रहा है कि मानो दिल्ली के उपराज्यपाल और दिल्ली के मुख्यमंत्री के बीच ठनी हो। मानो इन दोनों के अहंकार टकरा रहे हों या फिर दोनों के संविधान को समझने में बड़ा अंतर हो। लेकिन अगर ये चश्मा उतार कर देखें तो दिखेगा कि टकराव उपराज्यपाल और मुख्यमंत्री के बीच है ही नहीं। क्योंकि ये संभव ही नहीं कि प्रचंड बहुमत से जीत कर आयी किसी सरकार से एक नियुक्त किया गया व्यक्ति निजि तौर पर सीधी टक्कर ले ले। दरअसल उपराज्यपाल का सिर्फ कंधा भर है।

दिल्ली का कामकाज संविधान और नियमों की तीन किताबों के आधार पर चलता है। भारत का संविधान, GNCTD Act और TBR..... इन सभी को जोड़कर पढा जाए तो एक तस्वीर साफ़ होती है कि दिल्ली पूर्ण राज्य नहीं है। दिल्ली को ज़मीन, पुलिस और कानून व्यवस्था पर फैसले लेने का अधिकार नहीं दिया गया है। लेकिन इसका ये मतलब कतई नहीं कि फैसला किसी चुनी हुई सरकार की बजाय एक नियुक्त किया गया व्यक्ति लेने लगे। दरअसल देश की राजधानी होने के नाते दिल्ली को विधानसभा देने के बावजूद, इन विषयों पर फैसला लेने का अधिकार केंद्र की चुनी हुई सरकार के पास रखा गया है। और केंद्र उपराज्यपाल के ज़रिए इन तीनों विषयों पर उचित फैसले ले भी सकता है, लेकिन एलजी खुद ये फैसले लेने लगे तो इसे कितना जायज़ कहा जाएगा?

अब ताज़ा विवाद पर आते हैं। आखिर ये विवाद है क्या? क्या ये विवाद इन तीनों विषयों से जुड़ा है जिनपर फैसला लेने का अधिकार केंद्र के पास है? कुछ लोग कहते हैं कि ये विवाद सीएम केजरीवाल के एक आदेश से शुरु हुआ। लेकिन क्या वाकई सारा विवाद किसी एक मुद्दे को लेकर है?

पहला विवाद - केजरीवाल ने एलजी नजीब जंग को ख़त लिखकर ये कहा कि केंद्र के पास जो तीन विषय हैं उनपर मुख्यमंत्री को भी राय ली जानी चाहिये। ये ठीक है कि नियमों के मुताबिक इन तीन विषयों पर अंतिम फैसला केंद्र सरकार को लेना है लेकिन उन्हीं नियमों में ये भी लिखा है कि फैसला लेने की प्रक्रिया में मुख्यमंत्री से भी राय ली जा सकती है। उस राय को मानना या न मानना केंद्र के ही हाथ में रहेगा। लेकिन उपराज्यपाल ने मुख्यमंत्री की इस मांग को सिरे से ख़ारिज कर दिया। देश की राजधानी होने के नाते दिल्ली में इन तीन विषयों पर केंद्र को फैसले लेने का अधिकार देना प्रशासनिक मजबूरी तो हो सकती है लेकिन दिल्ली के बारे में हो रहे फैसले पर दिल्ली के 1.5 करोड़ लोगों के प्रतिनिधि से राय भी न ली जाए तो बात समझ नहीं आती है।

दूसरा विवाद- केजरीवाल ने पहले ख़त के कुछ दिनों बाद सरकार के सभी विभागों के लिए एक आदेश जारी किया कि ‘transferred subjects’ यानि तीन विषयों को छोड़कर बाकी सभी विषय जो दिल्ली राज्य को हस्तांतरित कर दिए गए हैं, उन विषयों से जुड़ी सभी फाइलें उपराज्यपाल को भेजने की ज़रुरत नहीं है। नियमों में साफ लिखा है कि जैसे तीन विषयों पर अंतिम फैसला लेने का अधिकार केंद्र को है बाकी सभी विषयों पर फैसला लेने का अधिकार दिल्ली की चुनी हुई सरकार के पास होगा। लेकिन उपराज्यपाल ने इस मामले में भी आदेश जारी किया कि सभी फाइलें उन तक भेजी जानी चाहिये। यानि दिल्ली की चुनी हुई सरकार द्वारा लिये गए हर फैसले की फाइल मंजूरी के लिए, नियुक्त किए गए उपराज्यपाल साहब के पास जानी चाहिये। ये अलग बात है कि अपने अधिकारों के लिए जूझ रही दिल्ली सरकार ने उपराज्यपाल के इस आदेश को मानने से इनकार कर दिया।

तीसरा विवाद – दिल्ली के मुख्य सचिव 10 दिन की छुट्टी पर गए तो सवाल उठा कि इस दौरान कौन अधिकारी कार्यकारी मुख्य सचिव के तौर पर काम करेगा। मुख्य सचिव मतलब मुख्यमंत्री का दाहिना हाथ। जो भी काम या आदेश मुख्यमंत्री जारी करेंगे वो मुख्य सचिव के द्वारा ही कार्यान्वित किए जाएंगे। ऐसे में ये माना जाता है कि मुख्य सचिव ऐसे अधिकारी को होना चाहिये जिसपर मुख्यमंत्री का पूरा भरोसा हो। हर राज्य के मुख्यमंत्री को उसकी पसंद का मुख्य सचिव रखने का अधिकार है बशर्ते वह अधिकारी इस काम के लिए उपलब्ध हो। सरकार की तरफ से परंपरागत तरीके से दिल्ली के कार्यकारी सचिव की नियुक्ति के लिए 5 सबसे सीनियर अधिकारियों के नाम भेजे गए। इनमें से एक नाम शकुन्तला गैमलिन का भी था जिसे सरकार की आपत्ति के बावजूद उपराज्यपाल ने कार्यकारी मुख्य सचिव नियुक्त कर दिया। अब आप ही बताइये कि इस बात से एलजी नजीब जंग का क्या लेना देना कि सरकार चलाने के लिए मुख्यमंत्री किस अधिकारी को क्या ज़िम्मेदारी देते हैं। उपराज्यपाल घर के बड़े की तरह होता है और उसे सम्मान देने के लिए ये परंपराएं रखी गई हैं कि जो भी फैसला चुनी हुई सरकार ले उस पर हस्ताक्षर करवाकर उपराज्यपाल को सम्मान बख्शा जाए।

चौथा विवाद – दिल्ली की एंटी करप्शन ब्रांच ने दिल्ली पुलिस के अधिकारी को रिश्वत लेते रंगे हाथों पकड़ लिया। दिल्ली के उपराज्यपाल ने तुरंत चिट्ठी लिखकर एसीबी को इस जांच से हटने को कहा और ये कहते हुए  केस पुलिस को सौंपने का निर्देश दिया कि दिल्ली पुलिस के अधिकारियों से जुड़ा कोई भी मामला एंटी करप्शन ब्रांच के अधिकार क्षेत्र में नहीं आता। ये अलग बात है कि तमाम दबाव के बावजूद सरकार पीछे नहीं हटी और रिश्वतखोर पुलिस अधिकारी को नहीं छोड़ा। बाद में दिल्ली हाईकोर्ट ने भी दिल्ली पुलिस को इस मामले पर फटकार लगाते हुए अधिकार क्षेत्र के बारे में लगाई गई याचिका खारिज कर दी। यानि एंटी करप्शन ब्रांच का उस पुलिस अधिकारी को पकड़ना कानूनी रुप से सही था तो फिर एलजी साहब अपने पद का इस्तेमाल कर क्यों इस केस को एसीबी से छीनना चाहते थे?

दिल्ली की हालत फिलहाल उस मकान की तरह है जिसमें नया मालिक शिफ्ट हुआ है। लेकिन चौकीदार ये जताने में लगा है कि घर में कौन आएगा, कब आएगा और कौन रहेगा ये चौकीदार तय करेगा क्योंकि दरवाज़ा उसी को खोलना है। खैर चौकीदार और मालिक को गंभीरता से मत लीजिएगा सिर्फ भाव समझाने के लिए लिखा है।


वैसे केजरीवाल दिल्ली के पहले ऐसे मुख्यमंत्री नहीं हैं जो उपराज्यपाल की मनमानी से परेशान हुए हों। अपने अपने वक्त पर मदन लाल खुराना, साहिब सिंह वर्मा और शीला दीक्षित अधिकार नहीं होने का रोना रो चुके हैं। ये अलग बात है कि वो बस बयान देकर रह गए और केजरीवाल ने अपना जायज़ हक पाने के लिए बवाल खड़ा कर रखा है। 

पर्दे के पीछे.....

ज़रा गौर कीजिए कि

केंद्र में सरकार आने के बाद बीजेपी ने ज्यादातर राज्यों में उपराज्यपाल बदल दिए लेकिन दिल्ली में नहीं....क्यों?

13 मई 2015 से दिल्ली एंटी करप्शन ब्रांच ने गैस की कीमतों की बढौतरी में घोटाले की जांच के सिलसिले में रिलायंस के कई बड़े अधिकारियों से पूछताछ शुरु कर दी है।

दिल्ली में रिलायंस ग्रुप की बिजली कंपनी को 11000 करोड़ रुपये का लोन चाहिये जो सरकार की गारंटी के बिना नहीं मिलेगा। खूब जद्दोजहद के बाद भी सरकार लोन गारंटी देने को तैयार नहीं है।

बिजली कंपनियां 12 हज़ार करोड़ रुपये का नुकसान दिखाकर बिजली के रेट बढाने की मांग करती रही हैं। लेकिन अब सरकार इस 12 हज़ार करोड़ के नुकसान पर ही सवाल उठाने वाली रिपोर्ट ला रही है।

बिजली कंपनियों की सरकार को ब्लैकमेल करने की कोशिश भी फेल हो गई है और सरकार ने ब्लैकआउट की हालत में ज़िम्मेदार बिजली कंपनी की छुट्टी करने के लिए बैकअप प्लान बना लिया है।

सूत्रों के मुताबिक बिजली कंपनियों की सीएजी जांच का शुरुआती दौर पूरा हो चुका है और जांच में सीएजी ने कई खामियां पकड़ी हैं।

केजरीवाल सरकार रहेगी तो ये लिस्ट लंबी होती जाएगी। 67 सीटों के साथ बनी सरकार का कुछ बिगाड़ पाना ज़रा मुश्किल काम है। लेकिन राजनीति में खुद को धुरंधर समझने वाले कुछ लोगों को लगता है कि केजरीवाल को अगर भड़का दिया जाए तो दिल्ली सरकार कुछ ग़लत या असंवैधानिक कदम उठा सकती है। और अगर ऐसा हो गया तो ऊपर दी गई लिस्ट न सिर्फ गोपनीय रह जाएगी बल्कि लंबी भी नहीं होगी। इस योजना के लिए इन लोगों का रोल मॉडल 49 दिन की सरकार, रिलायंस पर हुई एफआईआर के बाद का बवाल और परेशान होकर केजरीवाल सरकार का इस्तीफ़ा है।

खैर सिस्टम में बदलाव की कोशिश और विवादों का तो पुराना रिश्ता है। जब भी कभी ज़मीन खोदकर पानी निकालने की कोशिश होती है तो गड्ढे के किनारों की मिट्टी बार बार गिरती रहती है और पानी निकालने से रोकने की कोशिश करती रहती है। लेकिन महज़ तब तक, जब तक उस गड़ढे में पानी न निकल आए। सिस्टम भी गड्ढे के किनारे की उस मिट्टी की तरह ही है।  

पर्दा गिरता है.....

केजरीवाल सरकार ने दी उपराज्यपाल के अधिकारों को चुनौती। मुख्यमंत्री और उपराज्यपाल में फिर टकराव.......राष्ट्रपति की संविधान का सम्मान करने की सलाह। केंद्र ने उपराज्यपाल से कहा, केजरीवाल सरकार के दबाव में न आएं.........






Wednesday, May 13, 2015

तोमर की...पार्टी यूं ही चालैगी

सारा मीडिया परेशान है कि कानून मंत्री तोमर आखिर हटते क्यों नहीं या हटाये क्यों नहीं जा रहे। ज्यादातर पत्रकार इस बारे में आश्वस्त हैं कि जो डिग्री जितेन्द्र तोमर के पास हैं वो फर्ज़ी हैं। सार्वजनिक तौर पर मौजूद दस्तावेज़ भी यही इशारा करते हैं। लेकिन फिर भी तोमर के चेहरे पर शिकन तक नहीं है। मंत्री जी को कभी फोन कर लीजिए या मिल लीजिए, ऐसे हंसते मुस्कुराते नज़र आएंगे कि जैसे कुछ हुआ ही नहीं। कई साल हो गए पत्रकारिता करते हुए इसलिए आसानी से समझ सकता हूं उन सब दोस्तों का दर्द जिन्होंने तोमर की फर्ज़ी डिग्री से जुड़ी स्टोरीज़ की हैं। वाकई परेशानी होती है जब आपको लगे की तमाम कागज़ात आपकी स्टोरी को सही ठहरा रहे हैं फिर भी वो व्यक्ति जिसके खिलाफ़ आपने स्टोरी की है, अपनी कुर्सी पर विराजमान है, बेफिक्र है.....ऐसे में पत्रकार और ज़ोर लगाते हैं ताकि कुर्सी को हिलाया जा सके। लेकिन अपने उन तमाम साथियों को निराश करते हुए बस इतना ही बताना है कि तोमर की....पार्टी यूं ही चालैगी

दरअसल इस कहानी में भी पर्दे के पीछे कुछ और है और सामने कुछ और.......सामने विपक्षी दलों के आरोप नज़र आते हैं, तमाम दस्तावेज़ नज़र आते हैं, बार काउंसिल की जांच नज़र आती है, यूनिवर्सिटी की चिट्ठी नज़र आती है और डिफेंसिव मोड में सरकार नज़र आती है। पहली नज़र में लगता है कि सरकार के पास इस मामले में कोई जवाब ही नहीं है और बिना किसी कारण के सरकार इस ज़िद पर अड़ी है कि अपने दाग़ी मंत्री को हटाएंगे नहीं। दिल्ली में जिस बीजेपी की 3 सीट लाते-लाते सांसें फूल गई थी वो इस मुद्दे पर हर रोज़ प्रदर्शन कर रही है। आइए पूरे मामले को समझने के लिए पहले आरोप और पेश किए जा रहे सबूतों को समझ लें।

जितेन्द्र तोमर पर आरोपों की इस पूरी कहानी पर लोगों को आसानी से यकीन इसलिए हो जाता है क्योंकि जितेन्द्र तोमर की पढाई कई अलग अलग जगहों पर हुई, कई बार बीच में पढाई छोड़ी और फिर शुरु कर दी। स्कूल दिल्ली, ग्रेजुएशन उत्तरप्रदेश और कानून की पढाई बिहार से की। ज्यादातर लोग अपनी पढाई के दौरान लोग इतनी जगह नहीं घूमते इसलिए उन्हें आसानी से इसमें कुछ गड़बड़ नज़र आ गया। रही सही कसर पढाई के बीच अलग अलग वक्त पर लिये गये 5 साल के अंतराल ने कर दी। अब प्लॉट तैयार है बस कहानी बेचनी बाकी थी। बीजेपी के कुछ नेताओं ने इस कहानी के तार जोड़ने के लिए तमाम काग़ज़ात इकट्ठे करने शुरु किए और यूपी की यूनिवर्सिटी से लिखित में प्राप्त कर लिया गया कि डिग्री फर्ज़ी है। फिर भागलपुर से भी यूनिवर्सिटी से लिख कर आ गया कि कुछ गड़बड है और हंगामा मच गया कि फ़र्ज़ी डिग्री लिया हुआ एक आदमी कानून मंत्री बना बैठा है।

पर्दे के पीछे की कहानी.....

पहले पहल जितेन्द्र तोमर ने इस मामले को हल्के में लिया और नकार दिया। लेकिन जैसे जैसे कागज़ात सामने आने लगे तो एक बार के लिए तो तोमर खुद भी सकपका गए थे। लेकिन जब कोशिश शुरु की गई तो कई ऐसी कडियां जुड गयी कि तोमर के साथ साथ केजरीवाल भी संतुष्ट हो गए कि कानूनी लड़ाई में वो जीत जाएंगे। पढाई कहां की या नहीं की ये तो फिलहाल सिर्फ तोमर ही जानते हैं लेकिन कानूनी रुप से जो तस्वीर बाहर नज़र आ रही है पर्दे के पीछे बिल्कुल वैसी नहीं है। देखिए कैसे.....

आरोप है कि तोमर की ग्रेजुएशन की डिग्री फर्जी है और यूपी की यूनिवर्सिटी ने ये लिख कर दे भी दिया है। लेकिन इसकी काट के तौर पर तोमर के पास कॉलेज का लिखित जवाब और रिकार्ड मौजूद हैं जिसमें कहा गया है कि तोमर वहीं पढ़े हैं और डिग्री हासिल की है। अब इसके आगे अगर मामला जाता है तो ये लड़ाई कोर्ट में कॉलेज और यूनिवर्सिटी के बीच की है, तोमर कम से कम इस आरोप से साफ निकल आएंगे।

दूसरा आरोप है कि भागलपुर से ली गई तोमर की कानून की डिग्री फर्जी है। इस आरोप को पुख्ता करती है भागलपुर यूनिवर्सिटी की जांच रिपोर्ट, जिसमें लिखा है कि तोमर के रिकार्ड्स में गड़बड है और दिखाए गए सर्टिफिकेट फर्जी नज़र आ रहे हैं। इसके जवाब में तोमर ने अपना बेहद पुख्ता बचाव तैयार कर लिया है। तोमर ने फिर अपने उस कॉलेज से सारे रिकार्ड्स मांगे और जो कुछ मिला उसे किसी भी कोर्ट में चैलेंज करना बेहद मुश्किल होगा। तोमर के पास लॉ की पढाई के तीनों साल के मूल रजिस्ट्रेशन रजिस्टर, यूनिवर्सिटी रोल और एक्ज़ाम रिकार्ड की प्रतियां मौजूद हैं जो उसे लॉ कालेज के पुराने रिकार्ड से आरटीआई के ज़रिए मिली हैं।

हैरानी की बात तो ये है कि जो डिग्रियां तोमर की बता कर आरोप लगाए गए हैं दरअसल वो इन डिग्रियों से मेल नहीं खाती जो तोमर के पास मौजूद हैं। आरोप लगाने के लिए इस्तेमाल की गयी डिग्रियों पर रोल नंबर बदले हुए हैं जोकि तोमर की मूल डिग्रियां देखने से साफ़ समझ आता है।

दरअसल तोमर और सरकार इस पूरे मामले पर दोहरा खेल खेल रहे हैं और जानबूझ कर ये सारे दस्तावेज़ मीडिया के सामने नहीं रख रहे। मीडिया और विपक्ष इन आरोपों में इतना उलझा हुआ है कि सरकार को खुलकर अपना काम करने का मौका मिल रहा है। और जब कोर्ट में ये तमाम सबूत बिना मीडिया में आए सीधे पेश किए जाएंगे तो ज्यादा असरदार होंगे। मीडिया और विपक्ष झूठा नज़र आएगा और सरकार अपने खिलाफ मीडिया में चल रही तथाकथित साजिश का रोना फिर से रो सकेगी।

पर्दा गिरता है.....

तोमर की मुश्किलें बढ़ती नज़र आ रही हैं। बार काउंसिल ने पुलिस को जांच के लिए चिट्ठी लिखी है। तोमर इस पूरे मामले पर खामोश हैं .....केजरीवाल अपने दागी मंत्री पर चुप्पी साधे हुए हैं। लगता है मीडिया और विपक्ष की तमाम कोशिशों के बावजूद.....तोमर की...पार्टी यूं ही चालैगी


Wednesday, April 15, 2015

स्वराज संवाद का अगला पडाव, बीएमसी चुनाव.....नयी पार्टी की पूरी कहानी

गुडगांव की शुभ वाटिका में करीब एक हज़ार कार्यकर्ताओं की मौजूदगी और नेताओं के तेवर ने ये साफ कर दिया कि अब पार्टी का नाम और चिन्ह तय होना ही बाकी है। इन औपचारिकताओं को भी समय के साथ पूरा कर लिया जाएगा। लेकिन पर्दे के पीछे जाने से पहले सीन समझना बेहद ज़रुरी है।

करीब एक हज़ार कार्यकर्ता मौजूद हैं जो देश के अलग अलग हिस्सों से गुड़गांव पहुंचे हैं....बडी बात है। भीड होती तो शक्ति प्रदर्शन का नाम दिया जाता लेकिन इतनी संख्या में अलग अलग जगह से आये कार्यकर्ताओं की मौजूदगी साफ इशारा कर रही थी कि कार्यक्रम को एक योजना के तहत खास तरीके से आयोजित किया गया है। अलग अलग राज्यों से आए कार्यकर्ताओं से बात करने के लिए 60 टीम कॉर्डिनेटर भी बनाए गए। पूरे आयोजन को सुचारु तरीके से चलाने के लिए आईटी टीम, ऑर्गेनाइजिंग टीम बनाई गई थी। एनआरआई सदस्यों के विडियो मैसेज भी थे। कार्यक्रम में एंट्री के करीब डोनेशन बॉक्स भी रखे गये और पंडाल में चंदा इकट्ठा करने के लिए चादर भी घुमाई गई। यानि पूरी तस्वीर को कतई उस सबसे अलग नहीं दिखने दिया गया जो ये तमाम कार्यकर्ता और मीडिया, अन्ना आंदोलन से आम आदमी पार्टी तक के सफर में देखते रहे हैं।

मंच से लगातार वक्ता ये बताते रहे कि कैसे स्वराज के असली सिद्धांत वो नहीं हैं जो आम आदमी पार्टी में चल रहे हैं बल्कि वो हैं जो स्वराज संवाद के पूरे कार्यक्रम में दिखाई दे रहे हैं। योगेन्द्र यादव हमेशा की तरह फिर से मंच छोड कर कार्यकर्ताओं के बीच बैठे रहे, ये यकीन दिलाने के लिए कि वो बदले नहीं हैं...बस वक्त बदल गया है।

इसी बीच प्रोफेसर आनंद कुमार मीडिया से बात करते हुए बार बार ये कह रहे हैं कि नयी पार्टी रोज़ रोज़ नहीं बनती....हम आम आदमी पार्टी में ही रहेंगे। ये आम आदमी पार्टी के कार्यकर्ताओं का ही स्वराज संवाद कार्यक्रम है।

मंच से पहले प्रशांत भूषण बोले तो कुछ ऐसा बोल दिया जो वहां मौजूद कई कार्यकर्ताओं को भी अटपटा सा लगा। प्रशांत भूषण ने कहा कि हमारे पास एक विकल्प ये है कि हम कोर्ट में जाकर आम आदमी पार्टी का चिन्ह छीन लें....नाम छीन लें....क्योंकि ये हमारी पार्टी है और कुछ लोगों ने इस पर कब्ज़ा कर लिया है। वहां मौजूद किसी भी कार्यकर्ता को शायद ही प्रशांत जी के इस दावे पर शक हो, क्योंकि हर कोई प्रशांत जी की कानूनी समझ और पकड़ से बखूबी वाकिफ़ है। लेकिन फिर इसके बाद जब प्रशांत जी ने कहा कि हम कोर्ट नहीं जाएंगे तो पहली बार पुख्ता तौर पर अहसास हुआ कि नयी पार्टी की नींव रख दी गई है।

फिर योगेन्द्र यादव मंच से बोले और कहा कि दिल्ली मैदान में बिछे एक छोटे से रुमाल की तरह है......हमारे काम करने के लिए बाकी का पूरा मैदान खाली पड़ा है। इसलिए केजरीवाल सरकार से टकराएं नहीं...उन्हें दिल्ली में अपना काम करने दें।

अंत में वोटिंग हुई जिसमें 25 फीसदी ने तुरंत पार्टी बनाने को कहा तो 70 फीसदी ने कहा कि पार्टी के भीतर ही लड़ते हैं और कुछ समय बाद दोबारा बैठक कर निर्णय लेंगे। और फिर पास हुआ एक प्रस्ताव जिसमें 49 लोगों की कमेटी को स्वराज आंदोलन के बैनर तले आंदोलन चलाने, संगठन बनाने और निर्णय लेने का अधिकार दे दिया गया।

पर्दे के पीछे की कहानी

पार्टी बनाने का निर्णय लिया जा चुका है लेकिन सही समय और माहौल के लिए इंतज़ार करना पड़ रहा है। विवाद की शुरुआत में प्रशांत भूषण कोर्ट जाना चाहते थे क्योंकि आम आदमी पार्टी ने बागियों के खिलाफ जो भी फैसले लिए हैं उनमें कानूनी तौर पर कई बड़ी खामियां हैं। लेकिन एक बार जब ये फैसला लिया गया कि नयी पार्टी बनाई जाए को काफी मशक्कत करके प्रशांत जी को समझाना पड़ा कि कोर्ट की राह पर जाने से पार्टी पर कब्जा हासिल करने की तस्वीर सामने आयेगी जोकि व्यक्तिगत लड़ाई जैसा लगेगा। इस सबसे नयी पार्टी बनाने के लिए न तो कार्यकर्ता मिल पाएंगे और न ही सही राजनैतिक माहौल मिल पाएगा। ये और बात है कि सिर्फ बागी नेताओं ने ही नहीं बल्कि आम आदमी पार्टी में भी बहुत से लोगों ने प्रशांत भूषण के कोर्ट नहीं जाने के फैसले से राहत की सांस ली है।

नयी पार्टी बनाने के लिए नेता चाहिये, कार्यकर्ता चाहिये, पैसा चाहिये, संसाधन चाहिये, संगठन चाहिये और ऊर्जा चाहिये। योगेन्द्र यादव इन सारी बातों से बखूबी वाकिफ हैं। नये संगठन के लिए कार्यकर्ता वो लोग बन रहे हैं जो अपनी अपनी वजहों से आम आदमी पार्टी को आदर्शों से भटका हुआ मान रहे हैं। शुरुआत में पैसे की समस्या सुलझाने में शांति भूषण जी मदद कर देंगे जैसे आम आदमी पार्टी बनने के वक्त किया था। संसाधन जुटाए जा सकते हैं यही दिखाने के लिए स्वराज संवाद का आयोजन किया गया था। संगठन 49 लोगों की कमेटी (जो बाद में नयी पार्टी की कार्यकारिणी में तब्दील हो जाएगी) के ज़रिए तय करने की दिशा में कदम बढा लिया गया।

इन सारी कडियों को जोड़ने के लिए चाहिये एक नेता। प्रशांत भूषण अपने कानूनी मसलों में इतने उलझे रहते हैं कि पार्टी के शीर्ष नेता तो हो सकते हैं लेकिन पूर्णकालिक नेता नहीं। शायद इसलिए योगेन्द्र यादव ने मोर्चा संभाला और खुद को इस स्थान के लिए प्रस्तुत कर दिया। मंच से ये एलान किया कि मैंने अपने परिवार से बात कर ली है। आज के बाद जितना भी मेरा जीवन बचा है उसके हर दिन के 24 घंटे वैकल्पिक राजनीति तैयार करने में लगाऊंगा। इतना ही नहीं किसी कार्यकर्ता के मन में कोई शक न रहे इसलिए इशारा भी कर दिया कि आज से ही हम राजनीति के एक नये रास्ते पर निकल चुके हैं। किसी पार्टी को खड़ा करने के लिए और कार्यकर्ताओं में अपनी स्वीकार्यता स्थापित करने के लिए बेहद ज़रुरी है कि कोई नेता अपना निजि जीवन और परिवार त्याग कर लोगों के लिए काम करने का भरोसा जगाए। यही योगेन्द्र यादव ने भी करने की कोशिश की।

आम आदमी पार्टी की मैसूर टीम से स्वराज संवाद में पहुंचे विनोद एमएस ने मंच से कहा कि अगर समझौता नहीं हो सकता है तो फिर केजरीवाल दिल्ली चलाएं और योगेन्द्र यादव जी को संयोजक बना दिया जाए। इस हुंकार पर तालियां भी बजी और नारे भी लगे। इसे कोई भी आसानी से आवेश में कही गयी बात समझ सकता है अगर उसे ये न पता हो कि स्वराज संवाद से एक दिन पहले प्रशांत जी के घर जिन 10-15 लोगों की बैठक हुई उनमें ये विनोद जी भी मौजूद थे। ऐसे में इन्हें ये समझा देना मुश्किल बात तो नहीं थी कि संयोजक पद पर विवाद नहीं है और इसका ज़िक्र ज़रुरी नहीं है। लेकिन ये ज़िक्र ज़रुरी था क्योंकि मौजूद कार्यकर्ताओं को योगेन्द्र यादव में नयी पार्टी के संयोजक और नेतृत्व की छवि अभी से दिखानी थी।

यानि पार्टी बनाने के सारे तत्व मौजूद हैं तो फिर पार्टी का एलान क्यों नहीं हुआ? इसकी वजह है आखिरी तत्व, जो बेहद ज़रुरी है......ऊर्जा। बहुत से कार्यकर्ता फिलहाल नाराज़ तो हैं लेकिन उनमें वो हौसला नहीं है कि दोबारा सड़क पर उतर कर नयी पार्टी को खड़ा कर सकें। योगेन्द्र यादव पिछले 2-3 सप्ताह में देश के अलग अलग हिस्सों में घूमे हैं, कार्यकर्ताओं से मिले हैं और उन्हें ये बखूबी पता है कि अगर इस वक्त पार्टी का एलान किया गया तो पार्टी दफ्तर में ही सिमट कर रह जाएगी। राजनैतिक उर्जा चुनाव करीब देखकर या मुद्दों पर संघर्ष के दौरान पैदा होती है। योगेन्द्र यादव को राजनीति की खूब समझ है। इसलिए पार्टी की घोषणा करने की बजाय उन्होंने इन दोनों रास्तों पर आगे बढने का फैसला किया।

स्वराज आंदोलन के ज़रिए अलग अलग मुद्दों पर देश भर में आंदोलन चलाकर राजनैतिक ज़मीन तलाशने की कोशिश की जाएगी। और जैसे ही किसी मुद्दे पर राजनैतिक ज़मीन तैयार होती दिखेगी, उसी ज़मीन पर अपनी नयी पार्टी का दफ्तर बना देंगे।

अगर ऐसा नहीं हो पाया तो विकल्प भी तैयार रखा गया है। बहुत से लोग ये सोचकर हैरान हैं कि मयंक गांधी जो इस पूरे विवाद पर इतने मुखर होकर बोले थे वो और उनकी पूरी टीम अचानक पार्टी के भीतर स्वराज कायम करने के इस संघर्ष से गायब कैसे हो गई। जी हां, सूत्रों से जो जानकारी मिल रही है उसके मुताबिक मुंबई टीम ही बैकअप प्लान है। कुछ वक्त बाद ही बीएमसी चुनाव हैं जिसे लेकर मयंक काफी सक्रीय और मुखर हैं। अगर आम आदमी पार्टी का केंद्रीय नेतृत्व बीएमसी चुनाव लड़ने से इनकार करता है को मुंबई टीम बग़ावत करके चुनाव लड़ने का फैसला भी कर सकती है और यही वो राजनैतिक उर्जा हो सकती है जिसपर नयी पार्टी का शिलान्यास कर दिया जाए।

पर्दा गिरता है।

योगेन्द्र यादव, प्रशांत भूषण, प्रोफेसर आनंद कुमार जैसे बागी नेताओं को स्वराज संवाद के चलते पार्टी से निकाल दिया गया है। ये सभी नेता स्वराज संवाद में कुछ भी पार्टी विरोधी नहीं होने का दावा कर रहे हैं। इनका कहना है कि इस मनमाने फैसले के खिलाफ वो कार्यकर्ताओं के बीच जाएंगे। हमारे बाकी साथी पार्टी के भीतर रहते हुए संघर्ष जारी रखेंगे।

49 सदस्यीय नवनिर्मित स्वराज कमेटी ने देश भर में स्वराज संवाद आयोजित करने का कार्यक्रम तय किया है। इसके तहत अगला स्वराज संवाद हरियाणा आयोजित किया जाएगा।


वैसे मुझे जानकारी मिली है कि नयी पार्टी के लिए कई नामों के सुझाव भी पहुंच चुके हैं। मसलन आम जनता पार्टी, आम आदमी पार्टी (यूनाइटेड), आपकी अपनी पार्टी इत्यादि इत्यादि.... 

Friday, March 20, 2015

आम आदमी पार्टी की महाभारत का सच (भाग-2)



राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में योगेन्द्र यादव और प्रशांत भूषण को पीएसी से निकालने के मुद्दे पर वोटिंग में जब 11-8 का आंकड़ा निकल कर आया तो एक बार के लिए सबको लगा कि पार्टी टूटने जा रही है। कुछ वक्त बाद लगने लगा कि पार्टी तो नहीं टूटेगी लेकिन योगेन्द्र और प्रशांत को बाहर का रास्ता ज़रुर दिखाया जाएगा। ये शायद इन दोनों के कद के लिहाज से सही नज़र नहीं आता और इसी वजह से कई कार्यकर्ताओं की सहानुभूति भी दोनों को मिली। पार्टी नेताओं को इस बात का अहसास हुआ तो बातचीत के रास्ते हल निकालने की कोशिशें होने लगी।

कुछ लोगों की मानें तो पिछले कुछ दिनों से दोनों पक्षों में चल रही बातचीत समझौते की दिशा में बढ रही है। लेकिन यहां एक बुनियादी सवाल है कि जो आरोप योगेन्द्र और प्रशांत भूषण पर लगाए गए हैं क्या उनके रहते समझौता मुमकिन है? ऐसा कैसे हो सकता है कि इन आरोपों के होते हुए भी इतने प्यार से सब कुछ सुलझता नज़र आ रहा है....या तो ये आरोप ग़लत थे या फिर जो कुछ दिख रहा है वो सही नहीं है। क्या लड़ाई वाकई आदर्शों की है?

इन सबके बीच अचानक खबर आती है कि प्रशांत भूषण और योगेन्द्र यादव ने पार्टी को एक चिट्ठी लिखी है जिसमें अपने सभी आदर्शवादी मुद्दों के मान लिए जाने पर उन्होंने राष्ट्रीय कार्यकारिणी की सदस्यता समेत सभी पद छोड़ने की वादा किया गया है। फिलहाल राष्टीय कार्यकारिणी के अलावा प्रशांत भूषण अनुशासनात्मक समिति में, और योगेन्द्र यादव मुख्य प्रवक्ता के पद पर हैं। पहले प्रशांत जी ने चिट्ठी (एक नोट) लिखने की बात मानी लेकिन दावा किया कि इसमें इस्तीफे की बात कहीं नहीं है। यानि ऐसी कोई चिट्ठी होने की बात की पहली तसदीक प्रशांत भूषण की तरफ से हुई। कुछ ही देर बाद प्रशांत भूषण ने अपने बयान में थोड़ा बदलाव किया और शाम होते होते तो योगेन्द्र यादव ने सभी मीडिया चैनलों को झूठा करार दे दिया ये कहते हुए कि ऐसी कोई चिट्ठी लिखी ही नहीं गई। राजनीति में बेधड़क झूठ बोल देने की रिवायत ऐसे ही मौकों के लिए है जब आपकी राजनीति की बुनियाद खिसक रही हो। खैर योगेन्द्र जी के इनकार करने से सच्चाई तो बदल नहीं जाएगी, हां प्रशांत जी को ये पछतावा ज़रुर रहा होगा कि जब पार्टी में सभी चिट्ठी के बारे में खामोश थे तो उन्होंने इसके होने की तसदीक क्यों की?


अंदर की कहानी


योगेन्द्र यादव और प्रशांत भूषण की पार्टी से विदाई तय थी लेकिन पार्टी के सीनियर नेताओं के दखल के बाद बीच का रास्ता निकालने पर सहमति बनी। बीच का रास्ता दोनों की ताकत को स्वीकारना नहीं, बल्कि सम्मान के साथ दोनों को पार्टी में फैसला लेने के सिस्टम से अलग करने के लिए तलाशना था। क्योंकि पार्टी विरोधी काम करने का आरोप हो और पार्टी में शीर्ष निर्णय लेने की समिति में भी आप बने रहें, ये पार्टी के शीर्ष नेताओं के गले नहीं उतर रहा था। मैनें अपने लेख आम आदमी पार्टी की महाभारत का सच में भी लिखा था कि लड़ाई इन आदर्शवादीमुद्दों की नहीं है क्योंकि इन्हें मान लेना किसी पार्टी और खासकर आम आदमी पार्टी के लिए कोई बड़ा काम नहीं है। पार्टी में आखिरकार समझौता भी उसी दिशा में हुआ है। इन सभी मुद्दों को मान लिया जाएगा।

अब इसे योगेन्द्र यादव और प्रशांत भूषण का अति आत्मविश्वास कहिये या एक राजनैतिक चूक कि वो लगातार ये तस्वीर पेश करने में लगे रहे कि मानो ये मुद्दे ही उनके लिए सबकुछ हैं और अगर ये मुद्दे पूरे हो जाएं तो उन्हें किसी पद का कोई लालच नहीं है। (ये राजनैतिक चूक न होकर उनकी ईमानदार सोच भी हो सकती है, मैं इस बात से कतई इनकार नहीं कर रहा हूं)। इन दोनों नेताओं की ज़िद के आगे आखिरकार पार्टी को झुकना पड़ा और सहमति बनी कि ये सारे मुद्दे मान लिए जाएंगे लेकिन फिर क्या? क्या उससे योगेन्द्र यादव और प्रशांत भूषण पर पार्टी के खिलाफ काम करने के आरोप ख़त्म हो जाएंगे? और यदि नहीं तो फिर इन आरोपों के लिए सज़ा के तौर पर इन दोनों को पार्टी से तो निकलना ही होगा।

ऐसी स्थिति को सामरिक रणनीति की क्लास में बेहतरीन तरीके से समझाया जाता है। अगर लड़ाई में विरोधी समर्पण करने को राज़ी हो जाएं तो दो स्थितियां बन सकती हैं।

1)   विरोधी को कैद कर उसपर अपराध संबंधी मुकद्दमा चलाया जाए और पूरी दुनिया के सामने उसके अपराधों को साबित कर उसे नेस्तोनाबूद किया जाए। (लेकिन ऐसी स्थिति तो केवल भारत पाक युद्ध में ही फिट बैठती है।)

            2)  विरोधी यदि ग़लती मानकर समर्पण करने को तैयार हो जाए, तो उसे कई बार निकलने के लिए सुरक्षित रास्ता दे दिया जाता है ताकि खुद की जीत तो हो, लेकिन सामने वाले के अपराध का दुनिया में ढिंढोरा न पिटे।

पिछले कुछ दिनों में लगातार चली मुलाकातों में इसी तरह की एक सहमति बनी और इसी सहमति के आधार पर प्रशांत भूषण और योगेन्द्र यादव ने लिखित में दिया कि यदि उनके उठाए सभी मुद्दे मान लिए जाते हैं तो वो पार्टी के सभी पदों से इस्तीफा दे देंगे। बदले में उन्हें पार्टी से नहीं निकाला जाएगा और सम्मान सहित पार्टी में काम करने का दूसरा मौका दिया जाएगा।

इस चिट्ठी के लिखे जाने की पुष्टी कर प्रशांत जी शायद इसी सम्मान को सुनिश्चित कर लेना चाहते थे लेकिन बाद में उन्हें लगा कि पासा उल्टा पड़ रहा है तो चिट्ठी का अस्तित्व अचानक खत्म कर दिया गया। लेकिन इस दुनिया की यही तो खास बात है कि यहां जो एक बार अस्तित्व में आ जाए वो सच बन जाता है और सच यूं ही खत्म नहीं होता......अपने होने के निशान छोड़ देता है। इस चिट्ठी के साथ भी यही हुआ है.....इंतज़ार कीजिए, शायद किसी दिन बाहर आ जाए....

पर्दा गिरता है.....

28 मार्च को होने जा रही राष्ट्रीय परिषद में दोनों नेता ससम्मान पार्टी में बने रहेंगे। योगेन्द्र जी इसी तरह मुस्कुराते रहेंगे। प्रशांत जी इसी तरह पार्टी की कानूनी लडाई का चेहरा बने रहेंगे। और हां, आदर्श मांगें भी मान ली जाएंगी। सब खुश.......हैप्पी एंडिंग.....लेकिन बस इस एपिसोड़ की, क्योंकि कहानी अभी बाकी है।

Saturday, March 14, 2015

आम आदमी पार्टी की महाभारत का सच


कुछ लोग आम आदमी पार्टी के भीतर चल रही लडाई को व्यक्तित्वों का संघर्ष समझ रहे हैं, तो कुछ इसे राजनैतिक महत्वकांक्षा का टकराव कह रहे हैं। इसमें कोई दो राय नहीं कि जो कुछ दिखाई पड़ रहा है वो इसी तरफ इशारा करता है। लेकिन राजनीति की यही तो खास बात है कि यहां जो दिखता है वो होता नहीं और जो होता है वो दिखता नहीं। पर्दे के दूसरी तरफ इस टकराव की असली वजह छिपी है जहां शायद अभी तक किसी ने झांकने की कोशिश भी नहीं की है।

दरअसल कोई भी राजनैतिक महत्वकांक्षा या व्यक्तित्व संघर्ष कभी इस स्तर तक नहीं बढता.....एक वक्त के बाद कोई एक पक्ष दूसरे पर भारी पड़ जाता है और ऐसे संघर्ष शांत हो जाते हैं। क्योंकि अगर ऐसा न होता तो आडवाणी आज बीजेपी में नहीं होते। हर व्यक्ति को एक वक्त पर ये अंदाज़ा हो जाता है कि उसकी ताकत पार्टी के दूसरे नेता से ज्यादा है या कम। और उसी के आधार पर हमेशा राजनैतिक समझौते हो जाया करते हैं।

कुछ लोगों को लगता है कि ये संघर्ष मुद्दों को लेकर है पद को लेकर नहीं, जैसा प्रशांत भूषण और योगेन्द्र यादव भी लगातार दावा कर रहे हैं। लेकिन ऐसा भी नहीं लगता। अगर पद महत्वपूर्ण नहीं है तो फिर ऐसा क्यों हुआ कि खुद को पीएसी से बाहर निकालने के सवाल पर खुद प्रशांत और योगेन्द्र ने अपने ही पक्ष में वोट किया। अगर लडाई मुद्दों की ही है तो क्या अच्छा नहीं होता कि ये दोनों खुद को वोटिंग से बाहर रखते और बाकी सदस्यों को ये तय करने का अधिकार देते कि उन्हें पीएसी में रहना चाहिये या नहीं। लेकिन ऐसा नहीं हुआ क्योंकि जो कुछ चल रहा है उसमें पद का भी काफी महत्व है।

फिर ऐसा क्या है कि आम आदमी पार्टी में छिडा विवाद ख़त्म ही नहीं हो रहा। क्या योगेन्द्र यादव और प्रशांत भूषण को ये अंदाज़ा नहीं कि केजरीवाल पार्टी के भीतर और बाहर उनसे कहीं ज्यादा लोकप्रिय नेता हैं? और अगर उन्हें अंदाज़ा है तो फिर किस दम पर वो इस संघर्ष में आगे बढ़ते जा रहे हैं? आखिर क्यों केजरीवाल इस लडाई में अपनी छवि तक दांव पर लगाने को तैयार हैं?

आइये पर्दे के उस पार चलते हैं और पहले तमाम चरित्रों से मिलते हैं।

योगेन्द्र यादव – राजनीति में सिस्टम बदलने नहीं आये क्योंकि लम्बे वक्त तक खुद इस सिस्टम का हिस्सा रह चुके हैं। कुछ लोग इन्हें कांग्रेस दिग्गजों का राजनैतिक सलाहकार भी मानते रहे हैं। अपने दम पर पार्टी नहीं चला सकते ये तय है। लेकिन विचारों और व्यक्तित्व की अभिव्यक्ति में केजरीवाल को छोड दें, तो पार्टी में शायद ही कोई इनका मुकाबला कर पाए। पार्टी के जो नेता इन्हें दिन रात कोस रहे हैं वो अपने घर पर अपनी पत्नी से कुछ इस अंदाज़ में गालियां भी खा रहे हैं - योगेन्द्र जी तो इतने भले आदमी लगते हैं आप लोगों ने  ही कोई बदतमीजी की होगी वर्ना बात इतनी न बढती। योगेन्द्र यादव राजनैतिक व्यवहार और चालबाज़ियों में माहिर हैं। पार्टी के भीतर और कार्यकर्ताओं में योगेन्द्र यादव की खास पकड़ नहीं है इसलिए अपनी स्थिति मजबूत करने के लिए शुरु से ही प्रशांत भूषण को अपने साथ मिला लिया। अब हर बार कंधा प्रशांत भूषण का और चाल योगेन्द्र की होती है।

प्रशांत भूषण – भ्रष्ट सिस्टम में बदलाव के लिए शरु से लड़ते रहे हैं। भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई का एक बड़ा चेहरा हैं और पार्टी से अलग भी अपनी साख रखते हैं। अन्ना आंदोलन और आम आदमी पार्टी से पहले भी प्रशांत भूषण सिस्टम के खिलाफ कानूनी लड़ाई के लिए जाने जाते रहे हैं। कोई ख़ास राजनैतिक समझ नहीं है इसलिए योगेन्द्र यादव से खूब पट रही है। पार्टी में रहने या अलग होने से इन्हें व्यक्तिगत तौर पर कोई खास फर्क नहीं पड़ता। लेकिन पार्टी में ज्यादातर कार्यकर्ता इनके काम से प्रभावित हैं और मानते हैं कि इनके जाने से पार्टी को नुकसान होगा।

शांतिभूषण – आम आदमी पार्टी की इस पूरी महाभारत में धृतराष्ट्र की भूमिका में हैं। क्योंकि इनको बेटे का मोह दिखाकर जब भी इनके कान भरे गये। इन्होंने बिना पार्टी का अच्छा बुरा सोचे, खुलेआम विद्रोह का एलान कर दिया। (केवल उदाहरण देने के लिए शांतिभूषण को धृतराष्ट्र की भूमिका में कहा है....प्रशांत जी को दुर्योधन समझना या कहना बदतमीज़ी होगा।)

मयंक गांधी- महाराष्ट्र में पार्टी का चेहरा हैं लेकिन कोई लोकप्रिय नेता नहीं हैं। इस पूरे विवाद में हाल फिलहाल ही शामिल हुए हैं क्योंकि इन्हें लगने लगा है कि अगर योगेन्द्र यादव और प्रशांत भूषण पार्टी की रणनीति तय करने की भूमिका में नहीं रहे तो पार्टी अगले 5 साल और शायद उसके आगे भी महाराष्ट्र में चुनाव नहीं लडेगी। इससे इनके राजनैतिक भविष्य पर विराम लग रहा है।

अरविंद केजरीवाल – आम आदमी पार्टी का सबसे बड़ा और लोकप्रिय चेहरा। अपने दम पर यहां तक का रास्ता तय किया और अब भी महत्वपूर्ण फैसले अपने दिमाग से करने में यकीन करते हैं। जो जैसा है उसे उसी के तौर तरीके से जवाब देने की आदत है फिर चाहे उसके लिए कुछ देर पटरी से ही क्यों न उतरना पड़े। राजनैतिक समझ के मामले में इस वक्त पार्टी में इनका कोई सानी नहीं है। दिल्ली में रणनीति, कार्यानवयन और फैसले लेने का पूरा श्रेय केजरीवाल को जाता है। मन में बैठ चुका है कि योगेन्द्र यादव पीठ में छुरा घोंप रहे हैं। प्रशांत भूषण को पसंद करते हैं लेकिन उनके लिए योगेन्द्र और शांतिभूषण को बर्दाश्त करने को तैयार नहीं। लक्ष्य हासिल करने के लिए राजनैतिक पैतरों से भी परहेज़ नहीं लेकिन व्यक्तिगत तौर पर भ्रष्टाचार बर्दाश्त नहीं। पार्टी के भीतर की राजनीति में माहिर नहीं बन पाए हैं।


विवाद की असली तस्वीर –

योगेन्द्र यादव आम आदमी पार्टी में केजरीवाल के बराबर का कद चाहते हैं और ठीक उसी तरह जैसे दिल्ली की राजनीति में केजरीवाल को बेरोकटोक कोई भी फैसला लेने का अधिकार पार्टी ने दिया है....वैसा ही अधिकार हरियाणा की राजनीति में खुद के लिए चाहते हैं। लेकिन केजरीवाल के पुराने साथी और कट्टर समर्थक नवीन जयहिंद के हरियाणा की राजनीति में रहते ये कतई मुमकिन नहीं है। इसलिए योगेन्द्र यादव नवीन जयहिंद को पार्टी से बाहर निकलवाने की कोशिश भी कर चुके हैं लेकिन केजरीवाल इसके लिए कतई राज़ी नहीं है। इसे योगेन्द्र हरियाणा की राजनीति में केजरीवाल का हस्तक्षेप मानते हैं।

आम आदमी पार्टी बनने के शुरुआती दिनों में ही योगेन्द्र यादव ये समझ गये थे कि केजरीवाल प्रशांत भूषण को कुछ ज्यादा ही अहमियत देते हैं और प्रशांत ही एकमात्र ऐसे व्यक्ति हैं जो ठसक के साथ अपनी बात कह कर भी केजरीवाल को कभी नहीं खटकते। नवीन जयहिंद को निकालने के मुद्दे पर जब पंजाब में कार्यकारिणी की बैठक के दौरान वोटिंग करवाने पर योगेन्द्र अकेले पड़ गये, तो उन्हें ये समझ आ गया कि ऐसी स्थिति में पार्टी में लंबी पारी खेलना उनके लिए मुश्किल हो सकता है। योगेन्द्र यादव ने अपनी राजनैतिक चतुराई का इस्तेमाल कर धीरे धीरे प्रशांत भूषण को अपना बेहद करीबी बना लिया ताकि वक्त पड़ने पर उन्हें वीटो पावर की तरह इस्तेमाल किया जा सके। पिछले एक साल से ये दोनों दो शख्स हैं लेकिन पार्टी के भीतर हमेशा एक आवाज़ में बोलते हैं। यहां तक की राष्ट्रीय कार्यकारिणी को मेल या चिट्ठी भी एक ही जाती है जिसपर दोनों का नाम होता है।

योगेन्द्र यादव और प्रशांत भूषण की साझा कोशिशों के बावजूद पार्टी कार्यकारिणी में ये दोनों किसी मुद्दे पर कभी भी केजरीवाल को हराकर अपनी बात नहीं मनवा पाए। क्योंकि पार्टी में कोई भी केजरीवाल के खिलाफ जाने को तैयार नहीं है। पार्टी का पूरा सिस्टम (चूंकि वो वॉलंटियर्स से चलता है) भी केजरीवाल के ही इशारे पर काम करता है। इसलिए तय हुआ कि जिन आदर्शों की दुहाई देकर पार्टी बनी थी और तमाम समर्थक जुटे थे उन्हीं आदर्शों को आगे कर ये लड़ाई लड़ी जाए। लोकसभा चुनाव में ज़बरदस्त पराजय के बाद केजरीवाल ने फैसले लेने की पूरी ताकत अपने हाथों में ले ली। और योगेन्द्र यादव ने आदर्शों की लिस्ट पर सवाल जवाब कर केजरीवाल की इस ताकत को चुनौती देना शुरु कर दिया।

पासा सही पड़ा....वॉलंटियर्स उन सभी मद्दों के साथ हैं जो आदर्श हैं। मसलन खर्च का ब्यौरा, चंदे की जांच, आदर्श उम्मीदवारों का चयन इत्यादि इत्यादि। अब केजरीवाल कुछ भी कहें लेकिन कार्यकर्ताओं को तो पार्टी के भीतर आदर्श व्यवस्था ही चाहिये। यानि इस मुद्दे को सहारा बनाकर पहली बार पार्टी के भीतर केजरीवाल की स्थिति को चुनौती देना मुमकिन हो पाया है। अगर केजरीवाल इस मुद्दे के बहाने ही सही, योगेन्द्र यादव और प्रशांत भूषण के मामले में पार्टी में अल्पमत में आ जाएं तो पर्दे के पीछे के कई सवाल हल करने की ताकत योगेन्द्र कैंप के हाथ में आ जाएगी। समझौते के रुप में हरियाणा की दावेदारी, पार्टी में मजबूत स्थिति और दिल्ली के बाहर चुनाव लडने जैसे कई मुद्दों पर केजरीवाल की राय के खिलाफ भी अपनी बात मनवा पाना मुमकिन हो जाएगा। कैंप शब्द का इस्तेमाल इसलिए किया क्योंकि आदर्शों की इस लड़ाई के नाम पर योगेन्द्र आम आदमी पार्टी में अपने पक्ष में एक कैंप बनाने में कामयाब रहे हैं। इस कैंप को कार्यकर्ताओं का भी काफी समर्थन मिल रहा है। लेकिन यहां भी पर्दे के पीछे कैंप बनने का कारण आदर्श नहीं राजनीति ही है।

केजरीवाल आम आदमी पार्टी की आगे की राजनीति की दिशा और कार्यक्रम तय कर चुके हैं। केजरीवाल नेपोलियन नहीं बनना चाहते जिसे जीतने के लिए हर राज्य में जाना पड़े। केजरीवाल का प्लान है कि बिना दोबारा चुनावी दलदल में घुसे दिल्ली में ऐसा काम करके दिखाया जाए कि कहीं जाना न पड़े और देश भर में लोग दिल्ली का काम देखकर वोट दे दें। इसी प्लान को लेकर पर्दे के पीछे से पूरा कैंप खडा हो गया है। चुनाव नहीं लड़ेंगे तो महाराष्ट्र में मयंक गांधी की राजनीति का क्या होगा। हरियाणा में योगेन्द्र यादव का क्या भविष्य होगा। हिमाचल में तो प्रशांत पिछले विधानसभा चुनाव ही लड़वाना चाह रहे थे। देश भर के पार्टी नेताओं को दिल्ली के इस फरमान के खिलाफ खड़ा करना ज्यादा मुश्किल नहीं है क्योंकि चुनाव नहीं लड़ने से आखिर सवाल तो उन सभी राजनोताओं के अपने राजनैतिक भविष्य पर भी खड़ा हो गया है।

28 मार्च को आम आदमी पार्टी की राष्ट्रीय परिषद की बैठक है। इस परिषद में करीब 425 सदस्य हैं। लेकिन दिल्ली के सदस्यों की संख्या इसमें 50 से कम या उसके आसपास ही है। ऐसी स्थिति में आदर्शों को पर्दे के आगे रखकर और राजनीति को पर्दे के पीछे रख दिया जाए तो बहुमत को केजरीवाल के खिलाफ बनाया जा सकता है। बस इसी दम पर पूरा खेल चल रहा है।

खेल रचने वाले ये बखूबी समझते हैं कि केजरीवाल ज़िद्दी इंसान है....जो सोच लिया वो सोच लिया। दिल्ली में काम करके ही देश में वोट पाने का फार्मूला किसी हाल में नहीं बदलेगा (पंजाब इस पूरी बहस से अलग है वहां पार्टी चुनाव लडेगी, इसलिए पंजाब यूनिट भी केजरीवाल के पक्ष में नज़र आ रही है।)। ऐसी हालत में यदि राष्ट्रीय परिषद में योगेन्द्र और प्रशांत को निकालने के मुद्दे पर केजरीवाल अल्पमत में आ गए तो नाराज़ नेताजी सब छोड़-छाड बस दिल्ली में रम जाएंगे। और पार्टी का कामकाज पूरी तरह विरोधी कैंप के हाथों में चला जाएगा। जो नेता जिस राज्य में चुनाव लड़ना चाहते हैं लड़ पाएंगे। हारें या जीतें ये तय है कि केजरीवाल प्रचार में नहीं जाएंगे।

पर्दा गिरता है......

आम आदमी पार्टी के भीतर आदर्शों पर बने रहने की लड़ाई चल रही है। अगर चंदे की जांच करवा दी जाए, आरोपित उम्मीदवार जो अब विधायक हैं उनका इस्तीफा दिला दिया जाए, खर्च का पूरा हिसाब दे दिया जाए तो लडाई खत्म हो जाएगी

फिर बेशक पार्टी की राज्य इकाइयों को चुनाव लडने का फैसला खुद लेने का अधिकार मिले न मिले, योगेन्द्र जी को हरियाणा का निर्विरोध नेता माना जाए या न बनाया जाए, पार्टी संयोजक बदला जाए या न बदला जाए.......

मुस्कुराए मत, यही सच है....