Sunday, November 22, 2009

मज़ेदार रही 'नॉटी' की सवारी


इस रविवार इंडिया गेट पहुंचा, जहां इको फ्रेंडली वाहनों की एक रैली का आयोजन किया गया था। बैटरी चलित वाहन बनाने वाली कंपनियां कुछ प्रचार बटोरने की जुगत भिड़ा रही थी ताकि लोग चार लाख फूंक कर दो टके की गाडियां ख़रीद लें। इस रैली को हरी झंडी दिखाने पहुंची इन कंपनियों की अघोषित ब्रांड एम्बेसडर शीला दीक्षित। क्योंकि अगर मुख्यमंत्री की हैसियत से पर्यावरण के लिए कुछ करने का इरादा होता तो इन गाडियों को बनाने वाली कंपनियों के साथ बैठकर लोगों को सस्ती गाडियां मुहैया कराने का इंतजाम किया होता, न कि चार लाख में दो लोगों की सवारी वाली कार खरीदने की सलाह लोगों को दे रही होती। खैर सिक्के के हमेशा दो पहलू होते हैं। इसी रैली में फ़रीदाबाद के एक सज्जन भी अपनी 'नॉटी' के साथ पहुंचे थे। 'नॉटी' यानि वही मोबाइक जिस पर मैं सवार नज़र आ रहा हूं। जहां एक तरफ़ बड़ी कंपनियां इन 'इको फ्रेंडली बट नॉट इकोनॉमी फ्रेंडली' कारों में बिजनेस और मार्केट तलाश रही हैं, वहीं फ़रीदाबाद का सजीव पिछले पांच साल से अपनी सारी कमाई इस छोटी सी मोबाइक को बनाने के जुनून में खर्च कर रहा है। सालों की मेहनत लोगों तक पहुंच जाए इसलिए इस मोबाइक को 12 हज़ार में बेचने को तैयार है यानि बिना किसी मुनाफ़े के। मुख्यमंत्री मीडिया के पूछने पर इस मोबाइक और इसे बनाने वाले की तारीफ़ कर रही थी। मुझे नहीं लगता कि इस तारीफ़ को सुन कर सजीव के मन में अपनी चार मोबाइक के उन पार्टस का ख्याल न आया हो जिन्हें कस्टम से छुडाने के लिए उसे पैसों की ज़रुरत है। इस रैली में पांच मोबाइक ला सके इसके लिए जनाब ने अपनी हैसियत से बढ़कर किसी तरह चीन से चार मोटर तो मंगवा ली, लेकिन जोश में ये भूल गया कि कस्टम विभाग में सौदा पटाने के लिए पैसा कहां से आएगा? खैर हमें क्या? हमें तो अपने काम से मतलब है। जज़्बा क़द्र करने लायक था सो क़द्र की, लगा कि टीवी स्क्रीन पर ब्रांड एम्बेसडर उर्फ़ शीला आंटी से ज़्यादा इस नौजवान को दिखना चाहिये, तो दस सेकेंड 'आंटी' और दो मिनट 'नॉटी' को दिखाया। और हां, इस सब के बीच 'नॉटी' की सवारी को भला कैसे भूल सकता हूं? वाकई, बड़ी मज़ेदार रही 'नॉटी' का सवारी।

Wednesday, November 11, 2009

क्या ख़त्म हुई यादव राजनीति..?


दुश्मन न करे दोस्त ने वो काम किया है, उम्र भर का ग़म हमें इनाम दिया है.......ये गीत उस वक्त का है जब मुलायम सिंह यादव ने राजनीति में अपनी शुरुआत की थी लेकिन उसके लिये इसे गुनगुनाने का मौका आज आया है। एक वक्त पर बेहद करीबी रहे राज बब्बर ने ही मुलायम सिंह यादव की 'घर की इज्जत' को धूल चटा दी। कौन नहीं जानता कि मुलायम ने अपनी बहू डिंपल यादव के चुनाव में इतना ज़ोर लगा रखा था कि उपचुनाव में प्रदेश की 11 विधानसभा सीटों पर प्रचार का ख़्याल तक नहीं रहा, नतीजा ये कि विधानसभा उपचुनाव में सपा एक भी सीट नहीं जीत पायी। फ़िरोज़ाबाद लोकसभा सीट पर अपनी बहू डिंपल यादव के लिए ससुर मुलायम सिंह ने खुद तो जम कर प्रचार किया ही, अभिनेता संजय दत्त और सह अभिनेता अमर सिंह ने भी एड़ी चोटी का ज़ोर लगा रखा था। पार्टी की नायिका जयाप्रदा ने भी जनता को मुलायम सिंह और अमर सिंह समझ कर उनपर अपने बुढ़ा चुके हुस्न का जादू चलाना चाहा। मुलायम का बेटा अखिलेश यादव तो बेचारा फ़िरोज़ाबाद में घर जमाई की तरह ड़ेरा डाल कर बैठ गया था। लेकिन कहते हैं न कि जब बुरा वक्त आता है तो ऊंट पर बैठे इंसान को भी कुत्ता काट लेता है। फिर अपने राज बब्बर के तो नाम में ही शेर है। अखिलेश कुछ महीने पहले ही इस सीट से 60 हज़ार वोटों से जीते थे। फिर ऐसा क्या हुआ कि जीत हार में बदल गई और वो भी 80 हज़ार वोटों की हार। कुल मिलाकर देखें तो 6 महीने से भी कम वक्त में 1 लाख 40 हज़ार मतदाता सपा से किनारा कर गये। गिरती लोकप्रियता की इस तेज़ रफ्तार से मुलायम सिंह यादव की राजनीति का भविष्य नज़र आ रहा है। एक वक्त पर मौलाना मुलायम सिंह यादव कहे जाने वाले सपा सुप्रीमो अब मुस्लिम वोटरों में तेज़ी से अपनी पहचान खोते जा रहे हैं। इस बुढ़ापे में जयाप्रदा मोह और कल्याण सिंह से दोस्ती जैसी मधुमेह की बीमारी क्या कम थी, जो राज बब्बर को पार्टी से निकाल कर मुलायम ने अपने लड़खड़ाते पांव में कील ठोक ली। फ़िरोज़ाबाद के करीब 2 लाख मुस्लिम मतदाताओं ने बता दिया है कि मुलायम जिसे अपनी स्थाई राजनैतिक ज़मीन समझ रहे थे वो चलते फिरते लोग हैं। विधानसभा की 11 सीटों पर उपचुनाव था। लेकिन मुलायम सिंह यादव बाकी 10 सीट तो छोडिये अपने गढ़ इटावा को भी नहीं बचा पाए। शायद अब मुलायम को लालू से पूछ लेना चाहिये कि खाली वक्त में वो क्या करते हैं। क्योंकि मुस्लिम वोट के नाम पर चल रही यादव राजनीति पहले बिहार और अब उत्तरप्रदेश से निपट ही गई समझो......

Monday, November 9, 2009

राज ठाकरे को कोटि कोटि धन्यवाद....


सुनने में अजीब लगेगा मगर मैं वाकई राज ठाकरे को धन्यवाद कहना चाहता हूं क्योंकि अनजाने में ही सही उसने मुझे एक ऐसे सच से रुबरु करा दिया जिसके बारे में मुझे अंदाज़ा भी नहीं था। मुझे वाकई अंदाज़ा नहीं था कि मेरे इर्द गिर्द रहने वाले हज़ारों प्राणी ऐसे हैं जो खुद को इस देश का नागरिक तो कहते हैं मगर देश के संविधान से कोई ख़ास इत्तेफ़ाक नहीं रखते। मुझे ये तो मालूम था कि इस देश में राष्ट्रीय चिह्नों, राष्ट्रीय प्रतीकों का कितना 'सम्मान' किया जाता है लेकिन मैं इस बात से बिल्कुल अंजान था कि यहां किसी को ये नहीं पता कि हिन्दी हमारी राष्ट्रभाषा नहीं है। हिन्दी भाषी प्रदेशों में रहने वाले लोग इस भाषा से लगाव की वजह से ऐसा मान बैठे हों, ये मैं समझ सकता हूं....हालांकि ये वही लोग हैं जो अंग्रेज़ी को हिन्दी से ज़रा ज्यादा इज्जतदार भाषा समझते हैं। खैर बात राष्ट्रभाषा की हो रही है तो बता दूं कि इस देश की अभी तक कोई राष्ट्रभाषा नहीं है। संविधान के अनुच्छेद 343 के मुताबिक हिन्दी भारत(केन्द्र) की राजभाषा है। केंद्र के शासकीय कामकाज में इस भाषा का प्रयोग किया जाएगा, ऐसा संविधान में कहा गया है। अब आप कहेंगे कि अगर हिन्दी देश की राजभाषा है तो देश के हर राज्य की भी तो राजभाषा हुई। लेकिन ज़रा रुकिये जनाब, ऐसा नहीं है। संविधान के अनुच्छेद 345 में ये साफ़ कहा गया है कि प्रत्येक राज्य वहां बोली जाने वाली भाषा को अपनी राजभाषा घोषित करेगा और अगर किसी राज्य की राजभाषा घोषित नहीं की गई है तो ऐसी स्थिति में हिन्दी को उस राज्य की राजभाषा के रुप में इस्तेमाल किया जा सकता है। तो ये साफ़ हुआ कि हिन्दी को किसी राज्य की राजभाषा पर किसी तरह की वरिष्ठता प्राप्त नहीं है। अब कुछ लोगों का बेतुका तर्क ये है कि जब हिन्दी को राजभाषा बना दिया गया तो फिर राष्ट्रभाषा भी उसी को माना जा सकता है। मुझे लगता है कि ऐसा सोचना इस देश का संविधान बनाने वाली संविधान सभा के सदस्यों की समझ पर सवाल खड़ा करना होगा क्योंकि इस मुद्दे पर बहस तो संविधान बनाते वक्त भी हुई थी फिर क्यों आखिर हिन्दी को राष्ट्रभाषा नहीं बनाया गया। एक लंबी बहस के बाद संविधान सभा में यह तय किया गया था कि भारत में कई प्राचीन भाषाएं हैं जो पूरी तरह विकसित हैं और बड़े जनसमूह द्वारा बोली जाती हैं इसलिए किसी एक भाषा को राष्ट्रीय भाषा का दर्जा नहीं दिया जा सकता। हिन्दी को तो शुरुआती 15 सालों के लिए राजभाषा भी नहीं बनाया गया था। राजभाषा और राष्ट्रभाषा को अपनी सहूलियत के हिसाब से एक ही समझने वाले अगर इसके शाब्दिक अर्थ पर ध्यान दें तो समझ जाएंगे कि राजभाषा केवल राजकाज की भाषा होती है और राष्ट्रभाषा देश का प्रतीक और पहचान, दोनों में बड़ा फ़र्क है। और जिन्हें ये फ़र्क समझ नहीं आता वो राज ठाकरे की मानसिकता वाले लोग हैं फिर चाहे वे हिन्दी भाषी लोग हो या मराठी बोलने वाले।

जब नेता ने न्यूज़ एंकर से मांगा इस्तीफ़ा

न्यूज़ चैनल ने किसी नेता को इस्तीफ़ा देने पर मजबूर कर दिया या फिर किसी नेता ने न्यूज़ चैनल के माध्यम से किसी दूसरे नेता से इस्तीफ़ा मांग लिया.....इस तरह की बातें तो आपने खूब देखी सुनी होंगी। लेकिन किसी नेता ने लाइव किसी न्यूज़ एंकर से इस्तीफ़ा मांग लिया हो ये मैंने तो पहली बार ही देखा है। अजब वाक़या है इसलिए अजीबोगरीब अंदाज़ में लिख रहा हूं.... पूरे लेख में न मुख्य किरदार का नाम होगा और न ही संबंधित चैनल का नाम पता चलेगा क्योंकि ऐसा करने से न सिर्फ व्यक्ति विशेष की भावनाओं को ठेस पहुंच सकती है बल्कि एक ख़ास दोस्त भी नाराज़ हो जाएगी। खैर हुआ कुछ यूं कि महाराष्ट्र विधानसभा में अबू आज़मी हिन्दी में शपथ लेने की कोशिश कर रहे थे तो राज ठाकरे के 'गुंडों' ने कोहराम मचा दिया। अबू आज़मी को लगा झन्नाटेदार थप्पड़ भी कैमरे में कैद हो गया। बस फिर क्या था, अपनी आदत के मारे सब ख़बरिया चैनल मैदान में कूद पड़े और अगले दो मिनट के भीतर देश के हर न्यूज़ चैनल पर यही तस्वीरें छा गयी थी। एक चैनल की रफ्तार कुछ ज्यादा ही तेज़ थी.....यहां ख़बर पर आते ही सबसे पहले एमएनएस के नेता शिरीश पारकर को फोन पर पकड़ा गया.....सवाल जवाब भी होने लगे। ऐसे मौके पर न्यूज़ एंकर का एक ही धर्म होता है कि तेल पानी लेकर 'दुश्मन' पर चढ बैठो। उस वक्त चैनल की एक तीखी एंकर स्क्रीन पर थी। लेकिन जोश में शायद तेल पानी (तथ्य, फेक्ट, सबूत जो आप कहना चाहें) लेना भूल गयी और ऐसे ही टूट पड़ी शिरीश पारकर पर...

तीखी एंकर का सवाल- ' शिरीश जी राज्य भाषा से तो बड़ी होती है राष्ट्र भाषा..... अगर उन्होंने हिन्दी में शपथ ले भी ली तो ऐसा क्या हो गया।'

शिरीश पारकर का जवाब - ' अगर हिन्दी देश की राष्ट्रभाषा हुई तो मैं महाराष्ट्र की राजनीति छोड़ दूंगा और अगर नहीं हुई तो आप '*****' चैनल से इस्तीफ़ा दे दीजिएगा।'

ज़ोर का झटका ज़रा धीरे से लगा....शायद एंकर को झटके के बाद ही याद आया कि हिन्दी राष्ट्रभाषा नहीं 'राजभाषा' है या फिर हो सकता है देश के करोड़ों लोगों( कहीं आप भी उनमें से एक तो नहीं) की तरह बेचारी इस तथ्य से अनजान रही होगी और बचपन से ऐसा ही पढ़ती सुनती आयी हो कि हिन्दी ही भारत की राष्ट्रभाषा है। लेकिन जो भी हो एक ही झटके में तीखी एंकर का सब तेल पानी उतर गया और सवाल भी बदलने लगे। अपने पेशे की मजबूरी के तहत एंकर ने सदन की मर्यादा के नाम पर शिरीश को घेरना शुरु कर दिया। इस वाक्ये से आप भी समझ गये होंगे कि टेलिविजन की दुनिया में एक पल में क्या हो सकता है.....हीरो से ज़ीरो। या फिर ज़ीरो से हीरो जैसे राज को न्यूज़ चैनलों ने तैयार कर दिया वरना राज ठाकरे को कौन जानता था।

Tuesday, November 3, 2009

जाने क्यूं मन बेचैन है...?

एक लम्बे वक्त के बाद आज कंप्यूटर के कीबोर्ड पर अंगुलियां फिर से थिरकने को मचल रही हैं क्योंकि हलचल कहीं दिल में उठी है। ऐसा पहली बार नहीं है कि किसी बात को लेकर मन उद्वेलित हो रहा हो। लेकिन अमूमन भावनाएं जितनी तेजी से उठती हैं उससे भी कहीं तेज़ी से ज़िंदगी की आपाधापी में दफ़न हो जाती हैं। खैर बहुत कम होता है कि ऑफ़िस की मारामारी से फुरसत मिले तो आप घर से निकलें, वो भी बिना कुछ मन में सोचे कि आखिर करना क्या है, जाना कहां है। बस यूं ही निकल पड़ा था अचानक ये जानने, कि आखिर शहर में हो क्या रहा है। ख़बरों की दुनिया से होकर भी ऐसी बात कर रहा हूं, आपको थोड़ा अजीब तो ज़रुर लगेगा। मगर हकीकत यही है कि ख़बर बनाते हुए अकसर सतह को ही छू पाते हैं हम। बहुत ही मशीनी हो गई है ख़बरों की दुनिया भी अब.....कुछ लोग बताते हैं कि पहले ऐसा नहीं था। मगर उन लोगों की बात में कितना सच है ये कहना वाकई मुश्किल है। क्योंकि मैनें तो जब से देखा, ख़बरों की इस दुनिया का यही बिजनेस देखा है। बिजनेस से याद आया कि अगर हम जैसे हाई क्लास मज़दूरों की बिजनेस ने ये हालत कर दी है तो फिर एक आम मज़दूर की क्या हालत होगी? सवाल का जवाब तलाशना था इसलिये डीटीसी की नई बस में चढ़ते ही शक्ल से मज़दूर दिखने वाले इंसान को ढूंढने लगा। खैर कई चेहरे नज़र आए तो अपनी सहूलियत देख कर थोड़े से साफ़ सुथरे से दिखने वाले एक शख्स के पास बैठ गया। पत्रकार की पारखी नज़र इतनी तो काम आयी कि जिस शख़्स के पास बैठा था वो वाकई एक फैक्ट्री में काम करने वाला मज़दूर ही था। मुझे बस बात शुरु करनी थी बाकी सब उसने कर दिया। शीला दीक्षित से लेकर सोनिया गांधी तक सबको वो सलाम दिया कि अगर सुन लें, तो राजनीति से तौबा कर लें। नाराज़गी ज़्यादा नहीं थी, बस इतनी भर कि महीने में मिलने वाले 5 हज़ार रुपये से खाना खायें या फिर तन ढ़कने का इंतज़ाम करें। रोज़ फैक्ट्री जाने के लिए डीटीसी का सफ़र करते हैं मगर किराया बढ़ने से कोई ख़ास शिकायत नहीं है। बच्चों को दूध पिलाएं या नहीं, ये तो खैर उनके दिमाग में सवाल भी नहीं आता। मैंने जान बूझ कर दाल, चीनी की बात छेड़ी, तो वो इंसान बस मुस्कुरा दिया। शायद समझा कि मैं उसका मज़ाक उड़ा रहा हूं। कैसे समझाता मैं उसे कि मुझे तो बस ये जानने में दिलचस्पी है कि जिस तरह कॉमनवेल्थ से पहले दिल्ली में चमत्कारी ढंग से सब कुछ सुधरने जा रहा है....क्या उसे भी अपने लिए कुछ उम्मीद है? चर्चा में और भी बहुत कुछ था लेकिन अगर जानने की इच्छा बची हो तो किसी शख्स को खुद ही टटोल लीजिए, यकीन मानिये जवाबों में ज़्यादा फर्क़ नहीं होगा।