दिन में ज्यादा खाने का साइड इफेक्ट, वैसे इनका कहना है की ये गलत समय पर कोई काम नहीं करते हैं जैसे निशाचर वेला यानि कि रात के वक़्त ये भूखे हों तो भी नहीं खाते हैं, इसी तरह गलत चीज़ें देखते भी नही हैं लेकिन ये चूंकि दिन का वक़्त था तो खा भी ज्यादा लिया और मूड था तो गन्दी-गन्दी बोलते-बोलते 'दिल दोस्ती .....' भी देख ही ली। और मन मुताबिक दोनो काम हो जाने के बाद ज़रा इनका सोने का अंदाज़ देखिए...............
Friday, October 26, 2007
Tuesday, October 23, 2007
क्या मैं रावण हूँ ?
रावण दहन का मौका था और जल मैं गया ..........शायद इसलिए ये सवाल दिमाग में आया अब ज़रा उस जगह का नज़ारा सुनिए जहाँ पाप के प्रतीक रावण को फूकने का कार्यक्रम था हज़ारों लोगों की भीड़ और जलने वालों में रावण, मेघनाथ, कुम्भकर्ण, ब्लूलाइन और मैं खैर हादसा क्या था, क्या हुआ वो सब बाद में बताऊंगा लेकिन उससे पहले और बाद में जो कुछ हुआ वो उससे कहीं ज्यादा रोचक है हादसे से कुछ देर पहले मैं सोच चुका था कि इस मौक़े पर कैमरे के सामने क्या बोलूँगा
पी टी सी:- दिल्ली में कई जगह रावण दहन के मौक़े पर पुतले तीन नहीं बल्कि चार जलाये गए रावण, मेघनाथ और कुम्भकर्ण के पुतले तो हर साल की तरह जलाए ही गए बदलते वक़्त के साथ- साथ अपनी करतूतों की वजह से कुछ और नाम भी खलनायकों की इस लिस्ट में जुड़ गए हैं
यकीन जानिए उस वक़्त मुझे आभास भी नही था कि इस लिस्ट में मेरा भी नाम जुड़ चुका है
खैर हुआ वही जो होनी को मंज़ूर था और ब्लू लाइन के पुतले से एक बड़ा टुकडा मेरी पीठ से आकर टकराया, लगा मानो किसी ने धक्का दिया हो सहलाने के लिए पीठ पर हाथ फिराया तो पीछे से पूरी कमीज़ गायब हो चुकी थी तब पहला एहसास हुआ कि हुआ क्या है इस वक़्त तक वहाँ भगदड़ मच चुकी थी खैर मैं वहाँ से फस्ट एड के लिए निकला, बाद में कैमरा पर्सन से पूछा कि क्या उसने उस वक़्त के विज़्युअल लिए थे तो पता चला कि भगदड़ में भाई साहेब भी गिरे पड़े थे और कैमरे का मुँह आसमान की तरफ था
हादसा आजतक के रिपोर्टर के साथ हुआ था इसलिए मैनेजमेंट के होश उडे हुए थे इलाक़े के मशहूर सर्जन को बुलाया गया और उसने दवा दारु के बाद ४-५ दिन का बेड रेस्ट बता दिया तब से जैसे मानव योनि समाप्त हो गयी हो कभी कुत्तों की तरह हाथ पांव फैला कर पेट के बल सो रहा हूँ तो कभी घोड़े की तरह खडे खडे सोने की कोशिश करता हूँ आज पता चला क्यों कहा जाता है कि मैदाने जंग में कभी पीठ पर घाव नहीं खाना चाहिये इसका कायरता से कोई संबंध नहीं है इसका सीधा संबंध बाद की भयावह परिस्थितियों से है जो आजकल मैं भुगत रहा हूँ
घटना के बाद एक दोस्त ने सहानुभूति जताने के लिए मोबाइल पर जो संदेश भेजा वो कुछ इस तरह था......................... "दुनिया में आत्महत्या के कई तरीके हैं जैसे ज़हर खाना, फांसी लगाना, ट्रेन की पटरी पर सो जाना......लेकिन हमने सबसे अच्छा तरीका चुना है ---Journalism"
पी टी सी:- दिल्ली में कई जगह रावण दहन के मौक़े पर पुतले तीन नहीं बल्कि चार जलाये गए रावण, मेघनाथ और कुम्भकर्ण के पुतले तो हर साल की तरह जलाए ही गए बदलते वक़्त के साथ- साथ अपनी करतूतों की वजह से कुछ और नाम भी खलनायकों की इस लिस्ट में जुड़ गए हैं
यकीन जानिए उस वक़्त मुझे आभास भी नही था कि इस लिस्ट में मेरा भी नाम जुड़ चुका है
खैर हुआ वही जो होनी को मंज़ूर था और ब्लू लाइन के पुतले से एक बड़ा टुकडा मेरी पीठ से आकर टकराया, लगा मानो किसी ने धक्का दिया हो सहलाने के लिए पीठ पर हाथ फिराया तो पीछे से पूरी कमीज़ गायब हो चुकी थी तब पहला एहसास हुआ कि हुआ क्या है इस वक़्त तक वहाँ भगदड़ मच चुकी थी खैर मैं वहाँ से फस्ट एड के लिए निकला, बाद में कैमरा पर्सन से पूछा कि क्या उसने उस वक़्त के विज़्युअल लिए थे तो पता चला कि भगदड़ में भाई साहेब भी गिरे पड़े थे और कैमरे का मुँह आसमान की तरफ था
हादसा आजतक के रिपोर्टर के साथ हुआ था इसलिए मैनेजमेंट के होश उडे हुए थे इलाक़े के मशहूर सर्जन को बुलाया गया और उसने दवा दारु के बाद ४-५ दिन का बेड रेस्ट बता दिया तब से जैसे मानव योनि समाप्त हो गयी हो कभी कुत्तों की तरह हाथ पांव फैला कर पेट के बल सो रहा हूँ तो कभी घोड़े की तरह खडे खडे सोने की कोशिश करता हूँ आज पता चला क्यों कहा जाता है कि मैदाने जंग में कभी पीठ पर घाव नहीं खाना चाहिये इसका कायरता से कोई संबंध नहीं है इसका सीधा संबंध बाद की भयावह परिस्थितियों से है जो आजकल मैं भुगत रहा हूँ
घटना के बाद एक दोस्त ने सहानुभूति जताने के लिए मोबाइल पर जो संदेश भेजा वो कुछ इस तरह था......................... "दुनिया में आत्महत्या के कई तरीके हैं जैसे ज़हर खाना, फांसी लगाना, ट्रेन की पटरी पर सो जाना......लेकिन हमने सबसे अच्छा तरीका चुना है ---Journalism"
Monday, October 15, 2007
ये कैसा आतंकवाद....
सोचा था नहीं लिखूंगा....बेवजह अपने शब्दों को ऐसे लोगों के लिये ज़ाया नहीं करुंगा जिनमें इंसानियत बची ही नहीं है। अजमेर शरीफ़ में धमाका हुआ मैनें नहीं लिखा लेकिन जब दूसरा धमाका लुधियाना में हुआ तो खुद को लिखने से नहीं रोक पाया। कुछ लोग कहते हैं ये कि ये कश्मीर की लडाई है तो कुछ ने कहा ये लोग नाराज़ हैं सरकार से। लेकिन अगर नाराज़गी सरकार से है तो धमाके सरकारी दफ्तरों की बजाय दरगाहों और सिनेमा हॉल में नहीं हो रहे होते। मेरी नज़र में ये वो कायर हैं जो सरकार से टकराने की हिम्मत तो नहीं जुटा पाते लेकिन अपना ताकत ज़रूर साबित करना चाहते हैं और इसके लिये मासूमों को अपना निशाना बनाने से भी नहीं चूकते। इनसे बेहतर तो वो आतंकवादी थे जिन्होंने अपनी बात इस बुलंद आवाज़ में रखी कि सरकार हिल उठी थी। बेशक लोगों की नज़रों में उन्हें कहीं बड़ा आतंकवादी बता कर पेश किया गया था लेकिन हक़ीकत में वो पांच (या छह) कम से कम एक मकसद के लिये तो लड़ रहे थे और सामने से लड़ रहे थे। लेकिन खुद को आतंकवादी समझने वाले ये कायर अगर किसी दिन पुलिस के हत्थे चढ गये तो ...............
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