Monday, September 10, 2007
पत्रकारिता या कमीनापन!
आज एक बूढे बाप की स्टोरी कर रहा था जिसका बेटा सोलह साल पहले डीटीसी बस की चपेट में आ गया था। जैसे-जैसे इस स्टोरी पर आगे बढता गया व्यवस्था से घृणा सी होने लगी। लेकिन ऐसा कुछ पल के लिए था। आखिर मैं भी उस व्यवस्था का एक हिस्सा ही था। मैं और कैमरामैन कुछ देर बाद गाड़ी में ये ज़िक्र कर रहे थे कि किस चालाकी से हमने उस बूढे बाप से उसके बेटे का ज़िक्र कर पहले उसे रुलाया और फिर उसे रोते हुए शूट कर लिया ताकि कहानी मार्मिक हो सके। और सच भी तो है जब तक स्क्रीन पर कोई रो चिल्ला ना रहा हो, तब तक टीवी देखता कौन है। मगर कुछ भी कहिये कहानी में दम तो ज़रुर था। उन बूढे मां बाप का सोलह साल तक कोर्ट के चक्कर लगाना वो कारण नहीं था जो मुझे उस वक्त परेशान कर रहा था। मैं ये सोचकर परेशान था कि जब-जब ये लोग कोर्ट में गये होंगे या मुआवजे का ज़िक्र आया होगा तब-तब उन्हें उनका इकलौता बेटा भी याद आया होगा और हर बार आंसू आंख से चाहे ना बहे हों दिल तो ज़रुर रोया होगा। सवाल मन में हज़ारों थे लेकिन मेरे पास एक का भी जवाब नहीं था। मुझे अच्छी तरह मालूम था कि मैं चाहे कितनी भी अच्छी स्टोरी क्यों ना कर लूं यहां कुछ बदलने वाला नहीं है। हां अच्छी स्टोरी के लिए कुछ लोगों से वाहवाही ज़रुर मिल जायेगी लेकिन जब कोई इस स्टोरी की तारीफ़ करेगा तो इसका मतलब किसी पर तो इसका असर हो ही रहा है। कुछ और ना सही कम से कम लोगों का ये वहम तो टूटेगा कि अदालतों में अकसर इंसाफ़ मिल जाया करता है। काश मुआवजा मिलने से पहले ये बूढा बाप मर जाये यही सोचते सोचते स्क्रिप्ट की आखिरी पंक्ति भी लिख डाली।
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4 comments:
प्रिय अनुराग,
बढ़िया काम .... गर्व है तुम पर....अति सुंदर अति सुंदर.........
तुम्हारी दोस्त,
वर्णिका सिंह
अच्छा लगा पढ़कर..पता नहीं क्यों,पर मुझे उम्मीद नहीं थी कि तू कुछ लिखता भी होगा।ये उम्मीद प्रबुद्ध से भली भांति की जा सकती है।वैसे अच्छा लिखा है।
विषय अच्छा है| परन्तु शब्दों में अभी वो दम नही जो इस कहानी में जान डाल सके|
चित्रपट(केमरा) पर तो मुझे मालूम नहीं, किन्तु कलम की दुनियाँ में ये शब्द सिर्फ़ कुछ पलों के मेहमान हैं|
"पत्रकारिता या कमीनापन!"
इसमें कमीनापन कुछ अधिक है और पत्रकारिता सिर्फ़ नाम-मात्र | पता नहीं, हर इंसान अपने हिस्से की बुराई को भी दूसरों पर थोप कर कैसे सारे समाज को दोष दे सकता है| अगर इसी जगबीती को सही और उचित शब्दों में लिखा गया होता तो शायद ज्यादा प्रभावशाली होती|
भाईजान,
आपकी ये झुंझलाहट दूर करने की कोशिश तारीफ़ का लायक हैं।इससे एक बात तो साफ़ है कि इस ब्लॉग पर अपने विचारों को लिखकर राहत महसूस की जा सकती है।मुझे भी ऐसे किसी मौके की तलाश थी कि मैं अपनी बात अपनों से कह सकूं।
तुम्हारा सहयोगी,
संतोष ओझा
14.09.007
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