ज़िन्दगी की भागदौड़ में कब दिल और दिमाग सोचना बंद कर देते हैं ये पता ही नहीं चलता। मकसद अगर आंखों के सामने हो और ऊंचाई पर पहुँचने की ख्वाहिश दिल में... तो फिर ज़िन्दगी मशीनी हो जाती है। अब देखिये न नौ महीने का वक्त गुजर गया लेकिन इस बीच दिल की बात 'अधूरा ' पर लिखने के लिए कुछ लम्हे तक नहीं जुटा पाया। हाँ, एक बात ज़िन्दगी से ज़रूर सीखी है और न जाने कितनी ही बार आजमा भी चुका हूँ कि.....देर आये दुरुस्त आये। इसलिए एक बार फिर से कोशिश कर रहा हूँ शब्दों की कड़ियां नए सिरे से जोड़ने की। या फिर यूँ कहें कि एक अधूरे प्रयास को पूरा करने की एक और कोशिश कर रहा हूँ।
अधूरा में आपका एक बार फिर स्वागत है।
1 comment:
इस भागती हुई ज़िन्दगी के दो पल बहुत मंहगे हैं मेरे भाई, ज़रा संभल के खर्च करना|
पर दो पल में लिखी हुई दास्ताँ, कभी -२ बेशकीमती यादों का फलसफा बयान कर देती है||
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