राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में योगेन्द्र यादव और
प्रशांत भूषण को पीएसी से निकालने के मुद्दे पर वोटिंग में जब 11-8 का आंकड़ा निकल
कर आया तो एक बार के लिए सबको लगा कि पार्टी टूटने जा रही है। कुछ वक्त बाद लगने
लगा कि पार्टी तो नहीं टूटेगी लेकिन योगेन्द्र और प्रशांत को बाहर का रास्ता ज़रुर
दिखाया जाएगा। ये शायद इन दोनों के कद के लिहाज से सही नज़र नहीं आता और इसी वजह
से कई कार्यकर्ताओं की सहानुभूति भी दोनों को मिली। पार्टी नेताओं को इस बात का
अहसास हुआ तो बातचीत के रास्ते हल निकालने की कोशिशें होने लगी।
कुछ लोगों की मानें तो पिछले कुछ दिनों से दोनों
पक्षों में चल रही बातचीत समझौते की दिशा में बढ रही है। लेकिन यहां एक बुनियादी
सवाल है कि जो आरोप योगेन्द्र और प्रशांत भूषण पर लगाए गए हैं क्या उनके रहते
समझौता मुमकिन है? ऐसा कैसे हो सकता है कि इन आरोपों के होते हुए भी इतने प्यार से सब कुछ
सुलझता नज़र आ रहा है....या तो ये आरोप ग़लत थे या फिर जो कुछ दिख रहा है वो सही
नहीं है। क्या लड़ाई वाकई आदर्शों की है?
इन सबके बीच अचानक खबर आती
है कि प्रशांत भूषण और योगेन्द्र यादव ने पार्टी को एक चिट्ठी लिखी है जिसमें अपने
सभी ‘आदर्शवादी’ मुद्दों के मान लिए जाने पर उन्होंने राष्ट्रीय कार्यकारिणी
की सदस्यता समेत सभी पद छोड़ने की वादा किया गया है। फिलहाल राष्टीय कार्यकारिणी
के अलावा प्रशांत भूषण अनुशासनात्मक समिति में, और योगेन्द्र यादव मुख्य प्रवक्ता
के पद पर हैं। पहले प्रशांत जी ने चिट्ठी (एक नोट) लिखने की बात मानी लेकिन दावा
किया कि इसमें इस्तीफे की बात कहीं नहीं है। यानि ऐसी कोई चिट्ठी होने की बात की
पहली तसदीक प्रशांत भूषण की तरफ से हुई। कुछ ही देर बाद प्रशांत भूषण ने अपने बयान
में थोड़ा बदलाव किया और शाम होते होते तो योगेन्द्र यादव ने सभी मीडिया चैनलों को
झूठा करार दे दिया ये कहते हुए कि ऐसी कोई चिट्ठी लिखी ही नहीं गई। राजनीति में
बेधड़क झूठ बोल देने की रिवायत ऐसे ही मौकों के लिए है जब आपकी राजनीति की बुनियाद
खिसक रही हो। खैर योगेन्द्र जी के इनकार करने से सच्चाई तो बदल नहीं जाएगी, हां
प्रशांत जी को ये पछतावा ज़रुर रहा होगा कि जब पार्टी में सभी चिट्ठी के बारे में
खामोश थे तो उन्होंने इसके होने की तसदीक क्यों की?
अंदर की कहानी
योगेन्द्र यादव और
प्रशांत भूषण की पार्टी से विदाई तय थी लेकिन पार्टी के सीनियर नेताओं के दखल के
बाद बीच का रास्ता निकालने पर सहमति बनी। बीच का रास्ता दोनों की ताकत को
स्वीकारना नहीं, बल्कि सम्मान के साथ दोनों को पार्टी में फैसला लेने के सिस्टम से
अलग करने के लिए तलाशना था। क्योंकि पार्टी विरोधी काम करने का आरोप हो और पार्टी
में शीर्ष निर्णय लेने की समिति में भी आप बने रहें, ये पार्टी के शीर्ष नेताओं के
गले नहीं उतर रहा था। मैनें अपने लेख ‘आम आदमी पार्टी की
महाभारत का सच’ में भी लिखा था कि लड़ाई इन ‘आदर्शवादी’ मुद्दों की नहीं है
क्योंकि इन्हें मान लेना किसी पार्टी और खासकर आम आदमी पार्टी के लिए कोई बड़ा काम
नहीं है। पार्टी में आखिरकार समझौता भी उसी दिशा में हुआ है। इन सभी मुद्दों को
मान लिया जाएगा।
अब इसे योगेन्द्र यादव और प्रशांत भूषण का अति आत्मविश्वास कहिये या एक
राजनैतिक चूक कि वो लगातार ये तस्वीर पेश करने में लगे रहे कि मानो ये मुद्दे ही
उनके लिए सबकुछ हैं और अगर ये मुद्दे पूरे हो जाएं तो उन्हें किसी पद का कोई लालच
नहीं है। (ये राजनैतिक चूक न होकर उनकी ईमानदार सोच भी हो सकती है, मैं इस बात से
कतई इनकार नहीं कर रहा हूं)। इन दोनों नेताओं की ज़िद के आगे आखिरकार पार्टी को
झुकना पड़ा और सहमति बनी कि ये सारे मुद्दे मान लिए जाएंगे लेकिन फिर क्या? क्या उससे योगेन्द्र
यादव और प्रशांत भूषण पर पार्टी के खिलाफ काम करने के आरोप ख़त्म हो जाएंगे? और यदि नहीं तो फिर इन
आरोपों के लिए सज़ा के तौर पर इन दोनों को पार्टी से तो निकलना ही होगा।
ऐसी स्थिति को सामरिक रणनीति की क्लास में बेहतरीन तरीके से समझाया जाता
है। अगर लड़ाई में विरोधी समर्पण करने को राज़ी हो जाएं तो दो स्थितियां बन सकती
हैं।
1) विरोधी को कैद कर उसपर
अपराध संबंधी मुकद्दमा चलाया जाए और पूरी दुनिया के सामने उसके अपराधों को साबित
कर उसे नेस्तोनाबूद किया जाए। (लेकिन ऐसी स्थिति तो केवल भारत पाक युद्ध में ही
फिट बैठती है।)
2) विरोधी यदि ग़लती मानकर
समर्पण करने को तैयार हो जाए, तो उसे कई बार निकलने के लिए सुरक्षित रास्ता दे
दिया जाता है ताकि खुद की जीत तो हो, लेकिन सामने वाले के अपराध का दुनिया में ढिंढोरा
न पिटे।
पिछले कुछ दिनों में
लगातार चली मुलाकातों में इसी तरह की एक सहमति बनी और इसी सहमति के आधार पर प्रशांत
भूषण और योगेन्द्र यादव ने लिखित में दिया कि यदि उनके उठाए सभी मुद्दे मान लिए
जाते हैं तो वो पार्टी के सभी पदों से इस्तीफा दे देंगे। बदले में उन्हें पार्टी
से नहीं निकाला जाएगा और सम्मान सहित पार्टी में काम करने का दूसरा मौका दिया
जाएगा।
इस चिट्ठी के लिखे
जाने की पुष्टी कर प्रशांत जी शायद इसी सम्मान को सुनिश्चित कर लेना चाहते थे
लेकिन बाद में उन्हें लगा कि पासा उल्टा पड़ रहा है तो चिट्ठी का अस्तित्व अचानक
खत्म कर दिया गया। लेकिन इस दुनिया की यही तो खास बात है कि यहां जो एक बार
अस्तित्व में आ जाए वो सच बन जाता है और सच यूं ही खत्म नहीं होता......अपने होने
के निशान छोड़ देता है। इस चिट्ठी के साथ भी यही हुआ है.....इंतज़ार कीजिए, शायद
किसी दिन बाहर आ जाए....
पर्दा गिरता है.....
28 मार्च को होने जा
रही राष्ट्रीय परिषद में दोनों नेता ससम्मान पार्टी में बने रहेंगे। योगेन्द्र जी
इसी तरह मुस्कुराते रहेंगे। प्रशांत जी इसी तरह पार्टी की कानूनी लडाई का चेहरा
बने रहेंगे। और हां, ‘आदर्श’ मांगें भी मान ली जाएंगी।
सब खुश.......हैप्पी एंडिंग.....लेकिन बस इस एपिसोड़ की, क्योंकि कहानी अभी बाकी
है।