Wednesday, September 29, 2010
अयोध्या : संविधान बड़ा या धर्म
हमारे देश में संविधान बड़ा है या धर्म? एक बार फिर पूरे देश के सामने यही सवाल खड़ा हो जाएगा जैसे ही अदालत इस देश के सबसे बड़े मुकद्दमे पर अपना फैसला सुनाएगी। फैसला चाहे किसी के भी हक में हो ये सवाल हर हाल में उठेगा कि देश कैसे चलेगा? सदियों से चली आ रही आस्था से, एक धर्म को दूसरे धर्म से बड़ा साबित करने पर तुले कट्टरपंथियों की मर्ज़ी से या फिर आपसी सहमति और सौहार्दपूर्ण वातावरण में एक दूसरे के साथ रहने के लिए बनाए गए आधुनिक नियमों यानि संविधान से। ऐसा नहीं कि ये सवाल देश के सामने पहले कभी न आया हो.....शाह बानो केस में भी अदालत पर धार्मिक परंपरा का दबाव भारी पड़ा था लेकिन तब सवाल शायद इतना विकट नहीं था। क्योंकि सवाल एक धर्म की परंपराओं और अदालती फैसले में से किसी एक को चुनने का था लेकिन अब तो देश के दो सबसे बड़े धर्म ही मुकद्दमे के दो पक्ष हैं। लोकतंत्र के नाते लोगों की भावनाओं के नाम पर उस वक्त देश की सबसे बड़ी पंचायत ने अदालती फरमान को बदलने का फैसला तो ले लिया। लेकिन यकीन जानिए अयोध्या में सदियों से चले आ रहे विवाद को आधुनिक भारत में उसी दिन गहरी नींव मिल गयी थी जब एक धार्मिक मामले को देश की संविधानिक संस्था के ऊपर रखा गया।
सवाल अब भी वही है.....संविधान बड़ा या धर्म? इस प्रश्न का उत्तर भी संविधान में ही तलाशना होगा। संविधान के तीसरी अनुसूची में देश के किसी भी संविधानिक पद के लिए जो शपथ का प्रारुप दिया गया है वह इस प्रकार है। " मैं, अमुक, ईश्वर की शपथ लेता हूं कि मैं विधि द्वारा स्थापित भारत के संविधान के प्रति श्रद्धा और निष्ठा रखूंगा" ......यानि पूरे देश को चलाने के लिए जिस संविधान की रचना की गई है उसका पालन करने के लिए भी कसम ईश्वर/अल्लाह की ही दिलाई जाती है। जबकि यूएस के संविधान में शपथ का प्रारुप कुछ ऐसा है। "I do solemnly swear (or affirm) that I will faithfully execute the office, and will to the best of my ability, preserve, protect and defend the Constitution of the United States."
सपष्ट है कि हमारे देश में धर्म को संविधान से ऊंचा दर्जा दिया गया है। इसलिए अयोध्या के फैसले को लेकर सरकार की तैयारी, न्यूज चैनलों की बेचैनी और आम आदमी की चिंता साफ़ समझ आती है। अब मुश्किल ये है कि इंसान के बनाए संविधान को सर्वोपरी दर्जा नहीं है और भगवान इस केस का निपटारा करने अवतरित होने नहीं वाले। ऐसे में दोनों ही धर्मों के कट्टरपंथियों को जब मौका मिलेगा वो खुद को अवतार घोषित कर खुद ही फैसला सुनाते रहेंगे। इस केस के फैसले पर शायद कभी पर्णविराम नहीं लगेगा इसलिए गुजारिश है उन लोगों से जो अपने जीते जी अयोध्या के विवादित स्थान पर मंदिर या मस्जिद देखना चाहते हैं।
उजाले का इंतज़ाम अब कर ही लो.....इस रात की कोई सुबह नहीं है।
Thursday, September 23, 2010
कॉमनवेल्थ गेम्स विलेज एक धार्मिक साजिश है?
शायद बात आपको थोड़ी अजीब लगे लेकिन साक्ष्य के साथ पेश कर रहा हूं। कॉमनवेल्थ गेम्स विलेज के लिए यमुना के फ्लड प्लेन पर जगह तलाशने और आपत्तियों के बाद भी उसी जगह पर अडे रहने का राज़ अब समझ आने लगा है। दरअसल कोशिश यमुना किनारे खेलगांव बनाने की नहीं बल्कि भव्य अक्षरधाम मंदिर के बराबर एक उतना ही विशाल मुस्लिम ढांचा तैयार करने की थी। यकीन नहीं आ रहा मेरी बात का तो ज़रा तस्वीर को गौर से देख लीजिए। आसमान से गेम्स विलेज कुछ ऐसा ही दिखता है 786 की शक्ल में। 786 क्या है ये शायद आपमें से बहुत लोग जानते ही होंगे लेकिन जिन्हें पूरी तरह से पता नहीं है उनकी जानकारी के लिए बता दूं कि अंकों में लिखा अल्लाह है 786.....अरब मुल्कों में बेहद प्रचलित इस नंबर का मतलब समझने के लिए आप इसे पढ़ सकते हैं
"786" is the total value of the letters of "Bismillah al-Rahman al-Rahim". In Arabic there are two methods of arranging letters. One method is the most common method known as the alphabetical method. Here we begin with Alif, ba, ta, tha etc. The other method is known as the Abjad method or ordinal method. In this method each letter has an arithmetic value assigned to it from one to one thousand. The letters are arranged in the following order: Abjad, Hawwaz, Hutti, Kalaman, Sa'fas, Qarshat, Sakhaz, Zazagh.
इसे आप महज़ इत्तेफ़ाक भी कह सकते हैं कि दुबई की एक कंपनी ने इस खेलगांव को तैयार किया है, इसका बिल्डिंग डिज़ाइन तैयार करने वाला भी एक मुस्लिम ही है और जिस जगह ये खेलगांव बना उसके बगल में ही भव्य अक्षरधाम मंदिर है। इस सब को अगर छोड़ भी दिया जाए तो ये बात गले नहीं उतरती कि अनजाने में ही खेलगांव का डिज़ाइन 786 की शक्ल का बन गया हो। क्योंकि खेलगांव का ऐसा बिल्डिंग डिज़ाइन जगह के बेहतर और ज्यादा से ज्यादा इस्तेमाल के भवन निर्माण सिद्धांत का भी साथ नहीं देता। इतनी बड़ी योजना बनाते वक्त आर्किटेक्ट ख़ासतौर पर ऐसा डिज़ाइन तैयार करते हैं जिसमें ज्यादा से ज्यादा ज़मीन का इस्तेमाल हो सके लेकिन खेलगांव का डिज़ाइन देखने से 7 की शक्ल में बनी इमारत में जगह के बेजा इस्तेमाल को साफ़ देखा जा सकता है।
खैर अगर धार्मिक मुद्दे को छोड़ भी दिया जाए तो खेलगांव कॉमनवेल्थ या किसी भी अंतर्राष्ट्रीय आयोजन के नियमों के भी विपरीत है। किसी भी अंतर्राष्ट्रीय आयोजन में किसी धर्म से जुड़े किसी चिह्न या सिंबल का इस्तेमाल नहीं किया जा सकता। खेलगांव बनाने वाली कंपनी इस बात से बखूबी वाकिफ़ है इसलिए जब मैंने ईमेल कर इस विषय पर कंपनी से जानकारी लेनी चाही तो उनके सभी अफ़सरों के हाथ पांव फूल गये। कंपनी के जन सूचना विभाग की इंचार्ज जो पहले मेल करते ही मिनटों में जवाब देने की बात कर रही थी बार बार रिमाइंडर देने पर भी उसका जवाब आना तो दूर उसने हमारा फोन तक रिसीव करना बंद कर दिया। सच क्या है ये तो कंपनी या इस योजना के सूत्रधार ही बता सकते हैं लेकिन ये सब चीज़ें एक शक ज़रुर पैदा करती हैं और कई सवालों को भी जन्म देती हैं। सवाल ये है कि कहीं ये अक्षरधाम की चमक को फ़ीका करने की कोशिश तो नहीं? कहीं ये बीजेपी कार्यकाल में बने अक्षरधाम मंदिर का खेलगांव के रुप में कांग्रेस कार्यकाल में दिया गया जवाब तो नहीं? सवाल ये भी है कि अगर ये एक धार्मिक साजिश है तो सरकार में बैठे कौन लोग इस साजिश का हिस्सा हैं?
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